Shabaash Mithu : Women in blue!

कलाकार : तापसी पन्नू , विजय राज, शिल्पा मारवाह ,इनायत वर्मा , कस्तूरी जगनाम आदि

लेखक : प्रिया एवेन

निर्देशक : सृजित मुखर्जी.

⭐⭐⭐ 3/5

यह मैदान देख, यह भी जिंदगी की तरह है।

यहां सारे दर्द छोटे हैं, बस खेलना बड़ा है।

कुछ फिल्में सिर्फ फिल्में ना होकर अपनी कहानी में जिंदगी को बयां करती हैं, और यदि कहीं पर जिंदगी को कैसे जीना है कि दुनिया याद करे सिखाया जा रहा हो तो वह फिल्म शाबाशी के भी योग्य होती है और पूर्ण रूप से देखे जाने के भी।

“शाबाश मिथु” हमारी महिला भारतीय क्रिकेट टीम की कप्तान मिताली राज की अपनी टीम को वर्ल्ड कप फाइनल में लेकर जाने तक की यात्रा को अपने तरीके से हमारे समक्ष प्रस्तुत करती है। यात्रा उनकी है किंतु हमारे समाज के बहुत सारे प्रतिबिंब उनकी कहानी हमारे तक पहुंचाती है।

जहां एक तरफ मिताली के माता पिता अपनी बेटी की प्रतिभा का पता चलने पर कि वह भरतनाट्यम से अधिक सक्षम क्रिकेट खेलने में है, उसको बिना किसी झिझक के कोचिंग के लिए सहर्ष लेकर जाने लगते हैं और निरंतर बढ़ावा देते हैं। वहीं दूसरी तरफ शादी के समय लड़के वालों की तरफ से लड़की का क्रिकेट खेलना जरूरी बात सी ही नहीं है। उसको किसी भी निजी कार्य के लिए छोड़ा जा सकता है क्योंकि पुरुष जो कार्य कर रहा है वही सर्वोपरि है और उसी का ही महत्व है, स्त्री के सभी महत्वपूर्ण कार्य उसके उपरांत ही आ सकते हैं।

एक तरफ एक ऐसा कोच है जो एक 8 साल की बच्ची को गली क्रिकेट खेलता हुआ देखकर उसकी प्रतिभा को पहचान लेता है और उसको निपुणता की चोटी पर पहुंचाने का प्रयास करता है।वहीं दूसरी तरफ क्रिकेट बोर्ड है जो महिला क्रिकेट और पुरुष क्रिकेट को उसकी योग्यता से नहीं बल्कि उनके जेंडर से आंकता है।

और अंत में आते हैं हम जैसे लोग जो बोलते तो हैं कि हमें क्रिकेट से बहुत प्रेम है और हम बड़े क्रिकेट के प्रशंसक हैं। किंतु देखते और जानते सिर्फ पुरुष क्रिकेट टीम के बारे में ही हैं।

किसी खेल को पसंद करने और उसका प्रशंसक होने का अभिप्राय यह होता है कि हम उस खेल से जुड़ी हर बात को पसंद करें चाहे वह खेल महिलाओं द्वारा खेला जाए या पुरुषों द्वारा और यदि हम सिर्फ पुरुष द्वारा खेले जाने वाले खेल को या क्रिकेट को ही देखना पसंद करते हैं तो हमको अपने आप को पुरुष क्रिकेट प्रशंसक कहना चाहिए ना कि क्रिकेट प्रशंसक।

महिलाओं का संघर्ष हर क्षेत्र में ज्यादा ही रहा है। जहां पुरुषों को किसी भी ऊंचाई तक पहुंचने के लिए सिर्फ शारीरिक और मानसिक संघर्ष ही करना पड़ता है तो वहीं महिलाओं को एक सोच से भी टकराते रहना पड़ता है। वह सोच जो उनको या तो पुरुषों से कमतर समझती है या फिर उनको देवी ही समझती है।कहने का तात्पर्य है कि या तो तुम निम्न हो या फिर पूजनीय हो और दोनों ही सूरतों में आपके पैरों में बेड़ी ही है। अभी आते आते हम काफी आगे आ गए हैं, स्थिति पहले से करोड़ों गुना अच्छी है। किंतु सभी जगह नहीं।

मिताली राज के संघर्षों के चलते महिला क्रिकेट की हालत में काफी सुधार आया, यह एक व्यक्ति के कुछ ठान लेने को दर्शाता है जैसे कि दुष्यंत कुमार जी ने भी कहा है

कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं हो सकता

एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों…

तो बस एक महिला की उसी तबीयत की कहानी है जो हम सबको अपने अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए प्रेरित करती है।

सृजित मुखर्जी का कहानी को दर्शाने का अपना एक तरीका है, जो धीमा है किंतु बोझिल बिल्कुल भी नहीं है और कहानी की पकड़ को नहीं जाने देता।  तापसी पन्नू की बात करें तो उम्दा काम किया है एकदम मिताली राज के ढंग में ढल कर।

मिताली के बचपन का किरदार निभाया है इनायत वर्मा ने और उनकी दोस्त नूरी का किरदार कस्तूरी जगनामा ने निभाया है और इन दोनों बच्चों ने जान डाल दी है किरदारों में और बेहतरीन रूपरेखा तैयार की है आगे कहानी के लिए।

फिल्म को बिना किसी किंतु परंतु के देखा जाना चाहिए और हमें यह संदेश देना चाहिए कि हमारे पास रियल कंटेंट की कोई कमी नहीं है और हमें वह देखना भी है। अपने ही लोगों को और करीब से जानना है जो की अत्यधिक आवश्यक है।