16 सितंबर 2022 को नेटफ्लिक्स पर एक फिल्म आई है।
नाम है जोगी, मैंने अभी कुछ दिन पहले ही देखी है और जब से देखी है कुछ चीजें सच में मेरे ज़हन में चल रही हैं। जो चाह कर भी मैं अपने मन से और दिमाग से नहीं निकाल पा रही हूं।
सबसे पहली चीज जो इस फिल्म को देखने के बाद मेरे मस्तिष्क में आई वह है
लोग इतनी नफरत लाते कहां से हैं…
फिल्म की पृष्ठभूमि 1984 की है जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या होने पर सिख विरोधी दंगे शुरू हो गए थे और उन 3 दिनों ने भारत के नक्शे को कितना लाल और इतिहास को कितना काला किया था सभी को वह व्यथा ज्ञात ही है।
यदि हम को इंसान का जन्म मिला है तो एक इंसान में जितनी भावनाओं का वास होना चाहिए उनका होना बहुत ही सामान्य सी बात है यदि किसी व्यक्ति से बेइंतेहा प्रेम है तो उससे नफरत भी लाजमी है किंतु किसी एक से ही नफरत ना… पूरे परिवार से नफरत नहीं हो सकती… पूरी कौम से तो कदापि नहीं हो सकती !
एक और बात मानी जा सकती है कि मेरे परिवार के किसी व्यक्ति की हत्या हुई है तो मेरे अंदर बदले की भावना ने घर कर लिया है और मुझे उस व्यक्ति से बदला चाहिए तो भी यह बदला व्यक्ति विशेष का व्यक्ति विशेष से ही होगा ना उसको इस तरह के नरसंहार में परिवर्तित कर देना कहां का न्याय संगत कार्य है।
चलो लोग नफरत वाले कोण को तब भी भूना लेंगे, कि भाई हमारा व्यक्ति मरा है, हमें है गुस्सा, है आक्रोश लेकिन एक जो सबसे बड़ा पहलू इन दंगों के पीछे देखने में आता है वह है
सत्ता और पैसे की कभी ना तृप्त होने वाली चाह।
इसको राजनीतिक मुद्दा बनाकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन उन लोगों पर करना जिनका इस घटना से दूर-दूर तक कोई लेना देना ही नहीं है। हर व्यक्ति की बोली है। जो ज्यादा आम है उसकी मौत के दाम कम हैं जो आम से थोड़ा खास है उसके दाम भी ख़ास हैं।
मारने वाले पैसों के लालच में उन व्यक्तियों को मौत के घाट उतार रहे हैं जिनको उन्होंने कभी ना देखा ना जानते ही हैं। खुद की संवेदना और स्वयं विवेक की हत्या वो पहले ही कर चुके हैं।
यदि भगवान को किसी एक व्यक्ति के पीछे ही सबको चलाना होता तो वह सबको समान रूप से विकसित करके क्यों भेजता किंतु यह सोचने की जरूरत क्या है। नफरत अपने चरम पर है कि जो शक्तिशाली व्यक्ति ने कहा वह करना है बस ।
कहने को तो कहा जाता है कि मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है किंतु फिर भी लोग कितने मरते हैं। इन दंगों में भी लोग मरे लेकिन सही रिकॉर्ड किसी के पास नहीं है।
फिल्म में दंगों के साथ-साथ एक प्रेम और सद्भावना का मिश्रण दोस्ती के रूप में दिखाया गया है। जो बहुत ही पवित्र और प्यारा है। किसी की मदद करने के लिए आपको भगवान होने की जरूरत नहीं होती है सिर्फ पूर्ण रूप से इंसान होना पड़ता है। जब मारने वाले मार रहे थे तो बचाने वाले बचा भी रहे थे और अपनी जान को दांव पर लगाकर बचा रहे थे। जिसके चलते लोग बचे भी हैं और जब वह लोग यह दास्ताने सुनाते हैं तो दिल दहल जाता है।कि कैसे घरों को जलाया गया, जिंदा लोगों को जलाया गया पुलिस रक्षक ना होकर भक्षक हो गई।
फिल्म सभी भावनाओं का मिश्रण है अली अब्बास जफर की फिल्म जोगी फिल्मी अंदाज में एक डॉक्यूमेंट्री ही है। जो आपको 1984 में जो हुआ.. क्यों हुआ ? क्या वह होना चाहिए था ? क्या उसको रोका जा सकता था ? इन सब तथ्यों के बारे में सोचने और अधिक जानने की जिज्ञासा को मजबूत कर देती है।फिल्म में सभी का अभिनय काबिले तारीफ है फिर भी 4 नाम उल्लेखनीय है
दिलजीत दोसांझ
मोहम्मद जीशान अय्यूब
हितेन तेजवानी और कुमुद मिश्रा ।
फिल्म बिल्कुल देखे जाने योग्य है और देखकर सोचे जाने योग्य भी है।