Jogi ( 1984 की झांकी)

16 सितंबर 2022 को नेटफ्लिक्स पर एक फिल्म आई है।
नाम है जोगी, मैंने अभी कुछ दिन पहले ही देखी है और जब से देखी है कुछ चीजें सच में मेरे ज़हन में चल रही हैं। जो चाह कर भी मैं अपने मन से और दिमाग से नहीं निकाल पा रही हूं।
सबसे पहली चीज जो इस फिल्म को देखने के बाद मेरे मस्तिष्क में आई वह है
लोग इतनी नफरत लाते कहां से हैं…
फिल्म की पृष्ठभूमि 1984 की है जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या होने पर सिख विरोधी दंगे शुरू हो गए थे और उन 3 दिनों ने भारत के नक्शे को कितना लाल और इतिहास को कितना काला किया था सभी को वह व्यथा ज्ञात ही है।
यदि हम को इंसान का जन्म मिला है तो एक इंसान में जितनी भावनाओं का वास होना चाहिए उनका होना बहुत ही सामान्य सी बात है यदि किसी व्यक्ति से बेइंतेहा प्रेम है तो उससे नफरत भी लाजमी है किंतु किसी एक से ही नफरत ना… पूरे परिवार से नफरत नहीं हो सकती… पूरी कौम से तो कदापि नहीं हो सकती !
एक और बात मानी जा सकती है कि मेरे परिवार के किसी व्यक्ति की हत्या हुई है तो मेरे अंदर बदले की भावना ने घर कर लिया है और मुझे उस व्यक्ति से बदला चाहिए तो भी यह बदला व्यक्ति विशेष का व्यक्ति विशेष से ही होगा ना उसको इस तरह के नरसंहार में परिवर्तित कर देना कहां का न्याय संगत कार्य है।
चलो लोग नफरत वाले कोण को तब भी भूना लेंगे, कि भाई हमारा व्यक्ति मरा है, हमें है गुस्सा, है आक्रोश लेकिन एक जो सबसे बड़ा पहलू इन दंगों के पीछे देखने में आता है वह है

सत्ता और पैसे की कभी ना तृप्त होने वाली चाह।
इसको राजनीतिक मुद्दा बनाकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन उन लोगों पर करना जिनका इस घटना से दूर-दूर तक कोई लेना देना ही नहीं है। हर व्यक्ति की बोली है। जो ज्यादा आम है उसकी मौत के दाम कम हैं जो आम से थोड़ा खास है उसके दाम भी ख़ास हैं।
मारने वाले पैसों के लालच में उन व्यक्तियों को मौत के घाट उतार रहे हैं जिनको उन्होंने कभी ना देखा ना जानते ही हैं। खुद की संवेदना और स्वयं विवेक की हत्या वो पहले ही कर चुके हैं।
यदि भगवान को किसी एक व्यक्ति के पीछे ही सबको चलाना होता तो वह सबको समान रूप से विकसित करके क्यों भेजता किंतु यह सोचने की जरूरत क्या है। नफरत अपने चरम पर है कि जो शक्तिशाली व्यक्ति ने कहा वह करना है बस ।
कहने को तो कहा जाता है कि मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है किंतु फिर भी लोग कितने मरते हैं। इन दंगों में भी लोग मरे लेकिन सही रिकॉर्ड किसी के पास नहीं है।
फिल्म में दंगों के साथ-साथ एक प्रेम और सद्भावना का मिश्रण दोस्ती के रूप में दिखाया गया है। जो बहुत ही पवित्र और प्यारा है। किसी की मदद करने के लिए आपको भगवान होने की जरूरत नहीं होती है सिर्फ पूर्ण रूप से इंसान होना पड़ता है। जब मारने वाले मार रहे थे तो बचाने वाले बचा भी रहे थे और अपनी जान को दांव पर लगाकर बचा रहे थे। जिसके चलते लोग बचे भी हैं और जब वह लोग यह दास्ताने सुनाते हैं तो दिल दहल जाता है।कि कैसे घरों को जलाया गया, जिंदा लोगों को जलाया गया पुलिस रक्षक ना होकर भक्षक हो गई।
फिल्म सभी भावनाओं का मिश्रण है अली अब्बास जफर की फिल्म जोगी फिल्मी अंदाज में एक डॉक्यूमेंट्री ही है। जो आपको 1984 में जो हुआ.. क्यों हुआ ? क्या वह होना चाहिए था ? क्या उसको रोका जा सकता था ? इन सब तथ्यों के बारे में सोचने और अधिक जानने की जिज्ञासा को मजबूत कर देती है।फिल्म में सभी का अभिनय काबिले तारीफ है फिर भी 4 नाम उल्लेखनीय है
दिलजीत दोसांझ
मोहम्मद जीशान अय्यूब
हितेन तेजवानी और कुमुद मिश्रा ।
फिल्म बिल्कुल देखे जाने योग्य है और देखकर सोचे जाने योग्य भी है।

Shabaash Mithu : Women in blue!

कलाकार : तापसी पन्नू , विजय राज, शिल्पा मारवाह ,इनायत वर्मा , कस्तूरी जगनाम आदि

लेखक : प्रिया एवेन

निर्देशक : सृजित मुखर्जी.

⭐⭐⭐ 3/5

यह मैदान देख, यह भी जिंदगी की तरह है।

यहां सारे दर्द छोटे हैं, बस खेलना बड़ा है।

कुछ फिल्में सिर्फ फिल्में ना होकर अपनी कहानी में जिंदगी को बयां करती हैं, और यदि कहीं पर जिंदगी को कैसे जीना है कि दुनिया याद करे सिखाया जा रहा हो तो वह फिल्म शाबाशी के भी योग्य होती है और पूर्ण रूप से देखे जाने के भी।

“शाबाश मिथु” हमारी महिला भारतीय क्रिकेट टीम की कप्तान मिताली राज की अपनी टीम को वर्ल्ड कप फाइनल में लेकर जाने तक की यात्रा को अपने तरीके से हमारे समक्ष प्रस्तुत करती है। यात्रा उनकी है किंतु हमारे समाज के बहुत सारे प्रतिबिंब उनकी कहानी हमारे तक पहुंचाती है।

जहां एक तरफ मिताली के माता पिता अपनी बेटी की प्रतिभा का पता चलने पर कि वह भरतनाट्यम से अधिक सक्षम क्रिकेट खेलने में है, उसको बिना किसी झिझक के कोचिंग के लिए सहर्ष लेकर जाने लगते हैं और निरंतर बढ़ावा देते हैं। वहीं दूसरी तरफ शादी के समय लड़के वालों की तरफ से लड़की का क्रिकेट खेलना जरूरी बात सी ही नहीं है। उसको किसी भी निजी कार्य के लिए छोड़ा जा सकता है क्योंकि पुरुष जो कार्य कर रहा है वही सर्वोपरि है और उसी का ही महत्व है, स्त्री के सभी महत्वपूर्ण कार्य उसके उपरांत ही आ सकते हैं।

एक तरफ एक ऐसा कोच है जो एक 8 साल की बच्ची को गली क्रिकेट खेलता हुआ देखकर उसकी प्रतिभा को पहचान लेता है और उसको निपुणता की चोटी पर पहुंचाने का प्रयास करता है।वहीं दूसरी तरफ क्रिकेट बोर्ड है जो महिला क्रिकेट और पुरुष क्रिकेट को उसकी योग्यता से नहीं बल्कि उनके जेंडर से आंकता है।

और अंत में आते हैं हम जैसे लोग जो बोलते तो हैं कि हमें क्रिकेट से बहुत प्रेम है और हम बड़े क्रिकेट के प्रशंसक हैं। किंतु देखते और जानते सिर्फ पुरुष क्रिकेट टीम के बारे में ही हैं।

किसी खेल को पसंद करने और उसका प्रशंसक होने का अभिप्राय यह होता है कि हम उस खेल से जुड़ी हर बात को पसंद करें चाहे वह खेल महिलाओं द्वारा खेला जाए या पुरुषों द्वारा और यदि हम सिर्फ पुरुष द्वारा खेले जाने वाले खेल को या क्रिकेट को ही देखना पसंद करते हैं तो हमको अपने आप को पुरुष क्रिकेट प्रशंसक कहना चाहिए ना कि क्रिकेट प्रशंसक।

महिलाओं का संघर्ष हर क्षेत्र में ज्यादा ही रहा है। जहां पुरुषों को किसी भी ऊंचाई तक पहुंचने के लिए सिर्फ शारीरिक और मानसिक संघर्ष ही करना पड़ता है तो वहीं महिलाओं को एक सोच से भी टकराते रहना पड़ता है। वह सोच जो उनको या तो पुरुषों से कमतर समझती है या फिर उनको देवी ही समझती है।कहने का तात्पर्य है कि या तो तुम निम्न हो या फिर पूजनीय हो और दोनों ही सूरतों में आपके पैरों में बेड़ी ही है। अभी आते आते हम काफी आगे आ गए हैं, स्थिति पहले से करोड़ों गुना अच्छी है। किंतु सभी जगह नहीं।

मिताली राज के संघर्षों के चलते महिला क्रिकेट की हालत में काफी सुधार आया, यह एक व्यक्ति के कुछ ठान लेने को दर्शाता है जैसे कि दुष्यंत कुमार जी ने भी कहा है

कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं हो सकता

एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों…

तो बस एक महिला की उसी तबीयत की कहानी है जो हम सबको अपने अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए प्रेरित करती है।

सृजित मुखर्जी का कहानी को दर्शाने का अपना एक तरीका है, जो धीमा है किंतु बोझिल बिल्कुल भी नहीं है और कहानी की पकड़ को नहीं जाने देता।  तापसी पन्नू की बात करें तो उम्दा काम किया है एकदम मिताली राज के ढंग में ढल कर।

मिताली के बचपन का किरदार निभाया है इनायत वर्मा ने और उनकी दोस्त नूरी का किरदार कस्तूरी जगनामा ने निभाया है और इन दोनों बच्चों ने जान डाल दी है किरदारों में और बेहतरीन रूपरेखा तैयार की है आगे कहानी के लिए।

फिल्म को बिना किसी किंतु परंतु के देखा जाना चाहिए और हमें यह संदेश देना चाहिए कि हमारे पास रियल कंटेंट की कोई कमी नहीं है और हमें वह देखना भी है। अपने ही लोगों को और करीब से जानना है जो की अत्यधिक आवश्यक है।

ANEK REVIEW!

निर्देशक :- अनुभव सिन्हा
कलाकार :- आयुष्मान खुराना, एंड्रिया केवेचुसा, मनोज पाहवा कुमुद मिश्रा आदि
⭐⭐⭐ 3 / 5



सरल शब्दों में अपनी बात को कह देना, किसी भी कला से कम नहीं है क्योंकि जो सरल है वह सुंदर है और यदि वह सरलता ही आपकी पहचान बन जाए तो हर बार कुछ सुंदर प्रस्तुत करने की जिम्मेदारी आपके कंधों पर आज ही जाती है और हर बार अपनी दक्षता आपको प्रकट करनी भी पड़ती है।

निर्देशक अनुभव सिन्हा भी अपनी इसी प्रतिभा का रुक्का फिल्म जगत में मनवा चुके हैं। अभी तक उनकी जो भी फिल्में रही हैं वह एक ऐसे पहलू को उजागर करती रही हैं जिसके बारे में लोग जान कर भी कुछ भी सही तौर पर नहीं जानते थे। जिनमें से मुल्क, आर्टिकल 15 और थप्पड़ जैसी फिल्में प्रख्यात हैं।

आयुष्मान खुराना और अनुभव सिन्हा इससे पहले आर्टिकल 15 में कमाल का काम कर चुके हैं। कैसे और किस प्रकार सही जगह पर चोट करनी है उसका उदाहरण यह फिल्म बखूबी स्थापित कर पाई थी।
अब जब यही दोनों लोग, जिनको आप उनके द्वारा किए गए उम्दा कार्य के लिए सौ फ़ीसदी अंक दे चुके हैं, साथ आए तो आप फिर से अपने विचार में उनकी अंकतालिका पर सौ का आंकड़ा लगा कर बैठ जाते हैं और फिर आपको वह ना मिल पाए जिसके लिए आप सौ अंक देने आए हैं तो वहां से शुरू होता है अंकों का न्यून होना।

Anek को देखते समय आपको एक बार को संदेह होने लगता है कि आप सच में अनुभव सिन्हा की ही फिल्म देख रहे हैं या किसी और की, क्योंकि फिल्म अपनी बात को उतनी सरलता से नहीं कहती जिसके लिए निर्देशक मशहूर हैं। कहानी अपने आप को पुख्ता तौर पर स्थापित नहीं कर पाती हैं जिसकी वजह से नॉर्थ-ईस्ट के लोगों के लिए वो दर्द महसूस नहीं होता है। आपको उनके लिए बुरा लगता है किंतु उनके दर्द को महसूस करके आपकी आंखें नहीं झलकती जोकि अमूमन इस तरह की फिल्म को देखकर होता है। पर्दे पर इतना कुछ हो रहा होता है कि आपकी उत्सुकता तो बढ़ती है किंतु आप किसी भी दृश्य से पूर्ण रूप से जुड़ नहीं पाते हैं।
फिल्म आपको नॉर्थ ईस्ट का वह पक्ष दिखाती है जिससे कितने ही लोग अनभिज्ञ हैं या जान कर भी अनजान है या जानते हैं किंतु पूर्ण रूप से नहीं। कैसे हमारे द्वारा कहे गए मजाक के शब्द भी उन लोगों को नश्तर की तरह चुप सकते हैं क्योंकि उसके पीछे उनका ना जाने कब समाप्त होने वाला संघर्ष है। उन लोगों को वह हक चाहिए जो हमारे लिए सामान्य सी बात है क्योंकि हम नॉर्थ इससे नहीं है, और उनके लिए वही जंग का मुद्दा है। हर एक का अपना पक्ष होता है और सही नतीजे के लिए हर पक्ष पर बात होना और विचार होना अति आवश्यक है।

नार्थ ईस्ट की आवाज बनने के लिए अनुभव सिन्हा को पूरे अंक दिए जा सकते हैं किंतु हां यह आवाज और भी बेहतर और और भी पुख्ता हो सकती थी उनकी बाकी फिल्मों की तरह इस में भी मुझे कोई संशय नहीं है।
कुछ डायलॉग जरुर उल्लेखित करना चाहूंगी जो सच में नॉर्थ ईस्ट की एक तस्वीर प्रस्तुत करते हैं, जो सच में विचारणीय है।

North east मतलब West Bengal के पूर्वी side वाला इंडिया…
– Peace is a subjective hypothesis…
– Parlour वाली है या नेपालन है…
– Aido को team में ले लेते हैं तो ये team इंडियन बनेगी या Chinese…
– Pepole’s voice, 5 साल में एक बार सुनी जा सकती है रोज-रोज नहीं सुनी जाएगी…
– अगर इंडिया की मैप से state के नाम छुपा दो तो कितनी इंडियंस हर state के नाम पर उंगली रख सकते हैं…
– हिंदी डिसाइड करती है कि कौन नॉर्थ से है कौन साउथ से…
– सिर्फ इंडियन कैसे होता है आदमी…
– कहीं ऐसा तो नहीं है यह peace किसी को चाहिए ही नहीं वरना इतने सालों से छोटी सी problem solve नहीं हुई…

MODERN LOVE MUMBAI

Rating :- 3.5 / 5 ⭐⭐⭐💫
OTT :- Amazon prime

अमेरिकन वेब सीरीज मॉर्डन लव की तान से तान मिलाता हुआ मॉर्डन लव मुंबई भी आ चुका है और अपने साथ दिग्गज निर्देशकों की फौज और कुछ बहुत ही खूबसूरत कहानियों को हमारे सामने अपने मॉर्डन अंदाज में परोसता है।

यहाँ बात प्यार की हो रही है जैसे कि नाम से ज्ञात हो जाता है।
प्यार का कोई रंग रूप नहीं होता, वह हर व्यक्ति विशेष के हिसाब से बदलता है। उसके समीकरण उसके पैमाने वक्त के साथ अपना स्वरूप विकसित और भिन्न करते आए हैं। प्यार इतनी व्यापक और विस्तृत भावना है कि उसके अंदर असंख्य भावनाएं समा सकती हैं।
🔹वह हमको आजादी के साथ बंधना सिखाता है।
🔹वह ठहराव के साथ-साथ बहना भी सिखाता है।
🔹वह परिपक्वता के साथ-साथ बचपने को भी जीवित रखता है।
🔹वह फिक्र में भी बेफिक्री देता है।
कहने का तात्पर्य है कि इससे खूबसूरत भावना, अनुभूति और मनोभाव कुछ हो ही नहीं सकता और सबसे महत्वपूर्ण यह कभी भी आपको अकेला महसूस नहीं होने देता।
इन्हीं सब भावों से परिपूर्ण कहानियां हैं
मॉर्डन लव मुंबई के 6 अध्यायों के अंदर।

सभी कहानियां अपने अपने अंदाज मे प्यार की अपनी-अपनी परिभाषा को प्रस्तुत करती हैं और नएपन का एहसास भी देती हैं।
इन सभी कहानियों में से जो मेरी व्यक्तिगत प्रिय कहानियां हैं वह कुछ इस प्रकार हैं।

CUTTING CHAI :- निर्देशक नूपुर अस्थाना की कटिंग चाय का जो ज़ायका है वह जुबान से उतरने में खासा वक्त लेता है।
इतनी कमाल चाय बनाई है कि मुझ जैसे चाय प्रेमी को तो भा ही गई। कहने का तात्पर्य यह है कि बहुत ही सुंदर प्रस्तुति, बहुत ही सरल अभिनय और बिल्कुल आप और हम जैसे किरदार। जब जिंदगी जीते जीते फीकी होने लगती हैं तब आपको जरूरत होती है कि कोई आए और कहे “चल शुरू से शुरू करते हैं” बस फिर क्या है सफर फिर नया और ताजा लगने लगता है। अरशद वारसी की एक्टिंग हमेशा ताजगी का अनुभव कराती है और चित्रांगदा सिंह इतनी सुंदर कि नज़रें ही ना हटें। मतलब कि कहानी देख कर मजा ही आ गया। (⭐⭐⭐⭐💫)

RAAT RANI :- निर्देशक सोनाली बोस की रात रानी की महक ज़हन को वह अंदर वाली खुशी का अनुभव कराती है जो कुछ महत्वपूर्ण कार्य या सिद्धि के पूर्ण हो जाने पर होती है।
जिस प्रकार रात रानी की महक को दबाना मुश्किल है, वैसे ही व्यक्ति को भी उसकी सही क्षमता का पता लग जाने के बाद रोकना मुश्किल हो जाता है। यह कहानी भी यही पाठ हमें पढ़ाती है कि दूसरों की छत्र छाया या कंधों की जरूरत हमको नहीं है। हम खुद में उतने ही सक्षम है जितनी कि बाकी सब के साथ, जरूरत है तो बस इसको महसूस करने की। इस कहानी को फातिमा सना शेख ने अपनी अदाकारी से जीवित कर दिया है।
(⭐⭐⭐⭐)

BAAI :- निर्देशक हंसल मेहता की कहानी बाई हमें यह बताती है कि कुछ चीजों को समाज में इस तरह से निषेध घोषित कर दिया गया है कि अब वह चाहे कितनी भी पवित्र या शुद्ध भावना ही क्यों ना हो व्यक्ति उसको मानने से कतराते है और अपने आसपास के लोगों को भी इसके बारे में बताने में भय महसूस करता है। यह कहानी समलैंगिकता पर आधारित है और प्रतीक गांधी ने उस युवक जो इन परिस्थितियों से जूझ रहा है उसका किरदार बड़ी ही काबिलियत के साथ निभाया है और इसी के साथ रणवीर बरार की भी अदाकारी की शुरुआत बहुत ही पुख्ता तरीके से हुई है।
(⭐⭐⭐💫)

तो यह वह कहानियां हैं जिन्होंने कहीं ना कहीं मेरे मस्तिष्क पर अपना असर छोड़ा और सकारात्मकता की तरफ अग्रसर किया है।इसके अलावा भी इस सीरीज की बाकी तीन कहानियां भी बेशक देखने योग्य हैं और आपके सोच के खजाने में कुछ जोड़ कर ही जाने वाली हैं।
यदि आप मॉडर्न लव मुंबई देख चुके हैं तो अपने विचार मुझे बताइए और यदि नहीं तो देखकर जरूर बताइएगा।

The Fame Game !

⭐⭐⭐⭐ 4/5

निर्देशक : बिजॉय नांबियार, करिश्मा कोहली

लेखक : श्री राव

कलाकार : माधुरी दीक्षित, संजय कपूर, मानव कौल, राजश्री देशपांडे, मुस्कान जाफरी, सुहासिनी मुले, लक्षवीर सरन, गगन अरोड़ा

OTT : Netflix


तुम हुस्न परी तुम जाने जहां
तुम सबसे हसीन तुम सबसे जवां

अब आप सोच रहे होंगे कि यहां इन पंक्तियों का क्या अभिप्राय है तो यह पंक्तियां मैं प्रयोग कर रही हूँ सिर्फ और सिर्फ माधुरी दीक्षित के लिए। यह वह पंक्तियां हैं जो सीरीज को देखते समय अनायास ही मेरे मस्तिष्क में बार-बार आ रही थी। इससे आप अंदाजा तो लगा ही सकते हैं कि धक-धक गर्ल एक बार फिर से अपने इस OTT डेब्यू में लोगों को अपना दिल थाम कर रखने पर मजबूर कर देती हैं।
माधुरी दीक्षित अपने दशक की सबसे बेहतरीन, बहुचर्चित और बेहद खूबसूरत अदाकारा रही हैं और The Fame Game में भी वह इस बात को फिर से साबित करती हैं कि वह अपने समय में नंबर वन क्यों थी। किसी भी दृश्य के अंदर यदि माधुरी दीक्षित हैं तो वहां सभी लोग अपने आप ही नज़र आना कम हो जाते हैं, ऐसा कदापि नहीं है कि उन कलाकारों के अभिनय में कोई कमी है। किंतु माधुरी दीक्षित की अज़मत ही कुछ ऐसी है कि एक बार को उनके अलावा सब कुछ फीका फीका सा नज़र आने लगता है।
सीरीज की कहानी को श्री राव ने लिखा है, जिसको 45 to 50 मिनट्स के 8 अध्यायों में बांटा गया है। जिसका निर्देशन बिजॉय नांबियार और करिश्मा कोहली ने बहुत ही उम्दा तरीके से किया है। आपको इसके अंदर वह सभी मसाले देखने को मिलेंगे जिसकी वजह से b-town हमेशा सुर्खियों में रहता है किंतु थोड़े अलग फ्लेवर के साथ। तो जैसे कि आपको सीरीज के नाम और ट्रेलर से अंदाजा लग ही गया होगा कि कहानी एक फेमस हीरोइन के बारे में है, जो हैं अनामिका आनंद। उनका एक पति है, एक पुराना प्रेमी है, उनकी मां भी है, दो बच्चे भी हैं, एक पागल फैन भी है, तो कहने का तात्पर्य यह है कि सब तरफ से यह अभिनेत्री घिरी हुई है। अब उस पर इसका अपहरण भी हो जाता है, तो कहानी में पुलिस भी है। इसके अलावा इन सभी किरदारों की भी अपनी अपनी जंग है और अपना-अपना एक छुपाया या उलझा हुआ सा राज़ है। कुल मिलाकर यह सीरीज आपको अंत तक अपने अंदर पूरी तरह से उलझा कर रखेगी।
सीरीज की सबसे अच्छी और उम्दा बात यह है कि वह अनामिका आनंद से जुड़े हुए सभी किरदारों पर अपना पूरा ध्यान देती है ।किसी के साथ भी सौतेला व्यवहार नहीं करती। इसके चलते सीरीज थोड़ी धीमी जरूर प्रतीत होती है लेकिन सबको अपनी अदाकारी दिखाने का भरपूर मौका भी देती है।

क्यों देखनी चाहिए …
– माधुरी दीक्षित के फैन हैं तो
– Celebs की जिंदगी में दिलचस्पी रखते हैं तो
– आजकल की सीरीज से अलग मसाला चाहिए हो तो
– फिल्म को हिट कराने के पीछे के हथकंडे जानने हों तो
– मुस्कुराते चेहरों के पीछे रोते हुए दिलों की तड़प महसूस करनी हो तो

कुल मिलाकर बहुत सारी फिल्मों की झलक और उनके मसालों के साथ इस सीरीज को बनाया गया है, जो आपको कहीं कहीं कुछ देखी हुई चीजों की झलक दे सकती है किंतु फिर भी अपने नएपन को बरकरार रखते हुए अंत में आपको अपने क्लाइमेक्स के साथ थोड़ा चौंकाती भी है क्योंकि
सच के कई पहलू होते हैं और सभी को अपने हिस्से का सच ही सच लगता है।

A Thursday :- A Thursday not as good as A Wednesday

निर्देशक :- बेहजाद खंबाटा

कलाकार :- यामी गौतम , नेहा धूपिया , डिंपल कपाड़िया और अतुल कुलकर्णी

OTT :- Disney Plus Hotstar

⭐⭐💫 2.5 / 5

दर्द या पीड़ा सबसे ज्यादा कब महसूस होती है ???

जब वह आपकी अपनी होती है।

किसी और का दर्द उसी क्षमता से महसूस करने की क्षमता हम अभी तक अपने अंदर विकसित ही नहीं कर पाए हैं और जिन्होंने यह क्षमता जब कभी भी विकसित की है, वह समाज को हमेशा उन्नति की ओर ही लेकर गए हैं।

कुछ अपराध अक्षम्य होते हैं और उनको क्षमा की दृष्टि से देखे जाने का अर्थ है, उस अपराधिक सोच या मानसिकता को बढ़ावा देना। सही समय पर पड़ा हुआ एक थप्पड़ लोगों को पथ भ्रमित होने से बचा लेता है।

A Thursday भी हमारे सामने ऐसे ही विषय को अपने तरीके से प्रस्तुत करने का प्रयत्न करती है। फिल्म का विषय अच्छा है और फिल्म जो कहना चाहती है वह लोगों की आवाज भी है। लेकिन जब आप कोई फिल्म देख रहे होते हैं तो आपकी उम्मीद एक थ्रिलर फिल्म से क्या होती है, कि वह आपको विस्मित करें आपको चौकायें… तो यह फिल्म नहीं कर पाती है। जो भी फिल्म के अंदर हो रहा है उसका अंदाजा आप उसको देखते हुए लगा सकते हैं लेकिन हाँ यदि आप फिल्म देखना शुरू कर चुके हैं, और आपको फिल्म की कहानी का अंदाजा नहीं है, तो यह कहानी आप को पकड़ कर रखती है क्योंकि कुछ ना कुछ घटित हो रहा होता है।

फिल्म का मुद्दा बहुत अच्छा है लेकिन फिल्म विषय के दर्द को महसूस कराने में असफल रहती है, आप किरदार के दर्द से अपने आप को जोड़ नहीं पाते हैं तो जो भी यह फिल्म कर रही है वह बहुत ही उथला सा प्रतीत होने लगता है।

फिल्म बहुत सारे तारों को छूती है, वह सिस्टम को झंकझोर कर जगाने की बात करती है। वह मीडिया और सोशल मीडिया पर टिप्पणी करती है। फिल्म आपको सचेत और जागृत करने की तरफ प्रयासरत है। लेकिन इस तरह की जागृति पहले काफी फिल्में फैला चुकी हैं तो कुछ नया नहीं लगता है। नया है तो,

यामी गौतम को इस अवतार में देखना और वह प्रभावशाली भी दिखी हैं।

फिल्म को एक बार अवश्य देखा जा सकता है किंतु

A Wednesday को दिमाग से निकालने के उपरांत क्योंकि, नाम में समानता है काम में नहीं ।

Gehraiyaan Review

निर्देशक : शकुन बत्रा
कलाकार : दीपिका पादुकोण, अनन्या पांडे, सिद्धांत चतुर्वेदी, र्धैर्य करवा, नसीरुद्दीन शाह, रजत कपूर आदि
OTT : Amazon prime video
⭐⭐⭐



वैसे तो आज कल की दुनिया में हर कोई गहराइयों की तलाश में भटकता नजर आता है लेकिन यदि किसी फिल्म का नाम ही गहराइयां हो और उसको गहराई छू कर भी ना जाए तो आपको कैसा लगेगा… बिल्कुल वैसा ही जैसा कि इस फिल्म को देखने के बाद लगता है… “खालीपन” …शून्य सा ।
इस फिल्म के लिए कह सकते हैं “नाम बड़े और दर्शन छोटे”

इस फिल्म को देखने के बाद आपके दिमाग में जो रह जाता है वह है सिर्फ और सिर्फ दीपिका पादुकोण। सब कुछ उनके आसपास ही घूम रहा है और फिल्म देखने के बाद वह आपके दिमाग में कुछ समय के लिए घूमती रहने वाली हैं, यह तो पक्का है।

कभी-कभी चीज़ों को महसूस करना ही बहुत नहीं होता, उसको व्यक्त करना भी बेहद जरूरी पहलू होता है। यह फिल्म, इस फिल्म को बनाने वाले, फिल्म के कलाकार, सभी लोग कितनी भी गहराइयां महसूस कर रहे हों, किंतु ये सभी लोग इस को व्यक्त करने में चूक गए हैं जिसके फलस्वरूप फिल्म दर्शकों से संबंध स्थापित ही नहीं कर पाती है और बहुत ही उथलेपन से भावनाओं को प्रस्तुत करती हुई प्रतीत होती है।
कहानी को कहने का तरीका आपको किरदारों से जोड़ नहीं पाता है, जिसकी वजह से आप किसी भी किरदार की खुशी या गम को उन से जुड़ कर महसूस ही नहीं कर पाते हैं और फिल्म को सिर्फ एक फिल्म के तौर पर ही आंकने के अलावा आपके पास कोई विकल्प शेष नहीं बचता है।

फिल्म के कलाकारों की बात करें तो सब लोग अपनी जगह पर ठीक हैं, लेकिन कोई भी प्रभावित नहीं करता है, जो कि बहुत अच्छी बात नहीं है। कुल मिलाकर जो कलाकार आपको थोड़ा प्रभावित करता है, वह हैं दीपिका पादुकोण क्योंकि उन्हीं के पास कुछ करने के लिए धरातल है फिल्म की कहानी के अनुसार। बाकी कलाकारों के पास करने के लिए इतना कुछ नहीं है और यह बात कहीं ना कहीं खलती है।

अगर मैं कहूं तो मुझे फिल्म में जहां सच में गहराई नजर आती है, तो वह है, जहां नसीरुद्दीन शाह और दीपिका पादुकोण का अपनी बीती हुई जिंदगी को लेकर संवाद है, जो फिल्म के खत्म होने से कुछ समय पहले ही है। वह फिल्म का सर्वोत्तम अंश है, मेरे हिसाब से। इसके अलावा फिल्म में जो उम्दा है, वह है कौशल शाह की सिनेमैटोग्राफी, फिल्म का संगीत, फिल्म की लोकेशन और दीपिका पादुकोण की खूबसूरती।

फिल्म को एक बार जरूर देखा जा सकता है और देखा भी जाना चाहिए किंतु बहुत अधिक उम्मीद के साथ नहीं क्योंकि फिल्म जो बताने और दिखाने की कोशिश कर रही है वह सीधे तौर पर आप तक नहीं पहुंचा पाती है जिसके चलते आपको यह समझना पड़ता है कि आखिर यह फिल्म कह क्या रही है।


Human :- without Humanity !

⭐⭐⭐💫 3.5/5

कलाकार  :- शेफाली शाह , कीर्ति कुल्हारी , राम कपूर , इंद्रनील सेनगुप्ता , आदित्य श्रीवास्तव , सीमा बिस्वास और विशाल जेठवा

लेखक  :- मोजेज सिंह और इशानी बनर्जी

निर्देशक  :- विपुल अमृतलाल शाह और मोजेज सिंह

ओटीटी  :- डिज्नी प्लस हॉटस्टार

अवधि  :- 7 to 8 hours

Human होने के लिए जो सबसे पहली शर्त है वह है Humanity का होना, जो कि धीरे-धीरे व्यक्ति विशेष में उसके अपने निजी कारणों से या फिर सामाजिक कारणों की वजह से कहीं ना कहीं विलुप्त सी होती जा रही है। डिजनी प्लस हॉटस्टार की नई सीरीज Human इसी अमानवता भरे वातावरण को, हम सभी लोगों के समक्ष अपने ढंग से प्रस्तुत करती है। यह एक मेडिकल थ्रिलर है, जो डॉक्टर्स और फार्मा कंपनियों का एक नया और खौफनाक पहलू उजागर करती है।  कैसे कुछ लोगों की महत्वाकांक्षा, उनकी सनक बाकी लोगों की जिंदगियों को दांव पर लगा देती है।

वेब सीरीज Human की कहानी हमारे लिए नई है, इसलिए ताजी भी लगती है।  कहानी भोपाल में शुरू होती है, जहां भोपाल गैस कांड (1984)के निशान अभी तक पूरी तरह से गए नहीं हैं और लोग अभी भी उस कांड की वजह से कई बीमारियों से ग्रस्त हैं। जैसे कि हम सब जानते हैं कि कोई भी दवा बाजार में आने से पूर्व कई तरह के प्रयोगों से गुजरती है तब जा कर कहीं बाजार में उतारी जाती है।तो यहां दिखाया गया है कि कैसे दवाओं के ट्रायल को लेकर कंपनियां और डॉक्टर्स मिलकर इसको अपने फायदे के लिए उपयोग कर रहे हैं और गरीब लोगों की जिंदगियों के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है।

कहानी दो डॉक्टर्स के इर्द-गिर्द घूमती है। भोपाल के एक बड़े अस्पताल मंथन की सर्वज्ञाता डॉक्टर गौरी नाथ (शेफाली शाह) और उसी अस्पताल की एक नई डॉक्टर, डॉक्टर सायरा सभरवाल (कीर्ति कुल्हारी)। इन्हीं की जिंदगियों को केंद्र में रखकर दवा ट्रायल्स के नाम पर हो रहे अमानवीय व्यवहार की संरचना को प्रदर्शित किया गया है। कैंपों में गरीब लोगों को बिना बताए उन पर दवा का प्रयोग किया जा रहा है। इंसानों को भी गिनी पिग्स की श्रंखला में ही रख कर उनको भी ट्रायल का अंग बना लिया गया है। पीड़ितों को ना तो मुआवजा दिलाने वाला है कोई और ना ही न्याय।

सभी किरदारों को ग्रे शेड में दिखाया गया है कोई भी पूर्ण रूप से सही नहीं है और सभी किरदारों की अपनी अपनी एक वजह या कहानी है उनका इस तरह का होने की, लेकिन सच यह भी है कि…

जिंदगी सब के साथ सुखद नहीं होती लेकिन जरूरी तो नहीं ना सब खारे ही हो जाएं।

Human के अंदर, मुख्य कहानी के अलावा और भी छोटी-छोटी हर किरदार की अपनी एक कहानी भी है, जो ऐसा प्रदर्शित करती है कि एक साथ बहुत कुछ चल रहा है और जो कभी-कभी हमें मुख्य कहानी से भटका देता है और series को लंबा और धीमा बना देती है। Human की कहानी और किरदारों को ध्यान से देखो तो लगता है, इनको काफी सोच कर और गहराई के साथ लिखा गया है, गूढता पर कार्य किया गया है। किरदारों की बात करें तो शेफाली शाह का किरदार वह स्तंभ है जिस पर पूरी कहानी टिकी हुई है, बाकी सब किरदार इन्हीं के आसपास रचित हैं। यहां मैं एक बात जो विशेष रूप से अंकित करना चाहूंगी वह है, शेफाली शाह की अदाकारी और जो कुछ वह अपनी आंखों के जरिए बयां करती हैं, वहां शब्द और संवादों की जरूरत ही नहीं होती है। गौरी नाथ का किरदार उनसे बेहतर कोई कर ही नहीं सकता था। इसी के साथ नाम आता है, विशाल जेठवा का, आपको series देखते समय एक बार भी एहसास नहीं होगा कि वह acting कर रहे हैं, बहुत ही सहजता के साथ किरदार को निभाया है। अब बात करते हैं कीर्ति कुल्हारी की, एक बार फिर से ईमानदारी के साथ अपना कार्य करती नजर आती हैं।

कुल मिलाकर मोजेज सिंह और इशानी बनर्जी ने एक नई तरह की कहानी को लिखा है जो मेडिकल जगत के एक स्याह पहलू को सामने लाता है जिसको एक बार जरूर देखा जाना चाहिए।इसको देखने के लिए धैर्य और संवेदना दोनों की आवश्यकता है, कहने का तात्पर्य है उपयुक्त समय लेकर देखिएगा।

83 : A Historic Moment!

निर्देशक : कबीर खान
लेखक : कबीर खान, संजय पूरन सिंह चौहान, वसन बाला
संवाद : कबीर खान, सुमिता अरोरा
छायांकन : आसिम मिश्रा
Editing by : नितिन बेद
Casting by : मुकेश छाबरा
⭐⭐⭐⭐⭐ 5/5



‘ देर आए पर दुरुस्त आए ‘
यह कहावत पहली बार जब हम विश्वकप जीते थे, सन् 1983 में, तब भी सटीक बैठी थी और यह आज भी पूर्णतः सटीक है, निर्देशक कबीर खान की फिल्म 83 के लिए। फिल्म का इंतजार कब से किया जा रहा है और यह आते-आते आ भी गई है, और यहां मैं कह सकती हूं कि,
“आओ तो ऐसे आओ कि तुम्हारे आने को और आ कर छा जाने के हुनर को दुनिया याद करे..”
जिन्होंने इन पलों को जिया है या देखा है उनका तो अंदाज ए बयां कुछ और हो सकता है लेकिन जिन्होंने यह पल सिर्फ सुने या पढ़े हैं वह भी जब इन दृश्यों को पर्दे पर देखेंगे तो गर्व से छाती चौड़ी हो जाएगी और खुशी के आसुओं से आंखें दमक उठेंगी।
हर चीज को शब्दों में बयां कर पाना मुमकिन नहीं होता है और यह फिल्म 83 वही काम करती है कि आपके पास बखान करने के लिए उपयुक्त शब्दों की कमी सी प्रतीत होने लगती है।

83 शानदार क्यों है …

– क्रिकेट प्रेमी हैं तो इससे शानदार तरीके से आप 25 जून 1983 को महसूस नहीं कर सकते।
– क्रिकेट में देश की पहली जीत का जश्न मनाना चाहते हैं तो इससे बेहतर मौका नहीं मिल सकता।
– टीम वर्क किसको कहते हैं वह आपको इस फिल्म से उम्दा तरीके से कोई बता ही नहीं सकता
– एक 1983 में कपिल देव की टीम थी।
– और एक 2021 में कबीर खान की है।
– सपनों को हकीकत की पोशाक कैसे पहनाते हैं उसका इससे उत्तम उदाहरण कुछ नहीं हो सकता।
– खुद पर विश्वास और सही दिशा का ज्ञान है तो फर्क नहीं पड़ता कि लोग तुम्हारे बारे में क्या बोलते हैं और क्या सोचते हैं, यह कपिल देव की आंखें और शारीरिक हाव-भाव आपको हर बार इस फिल्म में महसूस कराते हैं।
सबसे बड़ी बात जो 1983 की जीत और फिल्म 83 हमें बताती है वह है कि
” इज्जत मांगने से कभी नहीं मिलती उसके लिए आपको हर बार अपने आपको अपनी औकात से ज्यादा साबित करना पड़ता है”



फिल्म की कास्टिंग की बात करें तो इससे उत्तम और सटीक कास्टिंग कुछ हो ही नहीं सकती थी बेहतरीन काम और vision मुकेश छाबड़ा जी का। इसी के साथ फिल्म के संवाद, फिल्म की एडिटिंग, फिल्म का संगीत सब कुछ फिल्म में चार चांद लगाता है और फिल्म को बेहतर से बेहतरीन की दिशा में अग्रसर रखता है।
अब बात करते हैं फिल्म के कलाकारों की हर एक व्यक्ति तारीफ का हकदार है मुझे कोई भी कलाकार ऐसा नहीं दिखा जो उत्तम नहीं था किंतु जहां जाकर और जिसको देखकर आप नि:शब्द हो जाते हैं, वह है रणवीर सिंह की अदाकारी। आप जो सोच भी नहीं सकते हैं वह कार्य उन्होंने करके दिखाया है।
आप पूरी फिल्म में रणवीर सिंह को ढूंढते रह जाओगे लेकिन आपको कपिल देव के अलावा कोई और दिख जाए इस चीज की गारंटी मैं दे सकती हूं।
रणवीर सिंह सच में कमाल ही हैं और हर बार वह विस्मित ही करते हैं ।

अब आप मुझे बताइए कि आपको यह फिल्म देखने से कोई भी ताकत कैसे रोक सकती है तो बिना किसी देरी के थियेटर्स की तरफ प्रस्थान कीजिए…
⭐⭐⭐⭐⭐

Bell Bottom Review !!!

निर्देशक : रंजीत एम तिवारी

कलाकार : अक्षय कुमार, वाणी कपूर, लारा दत्ता,
हुमा कुरैशी, आदिल हुसैन, ज़ैन ख़ान…

OTT : Prime Video
⭐⭐⭐💫 3.5 / 5
अवधि : 2 hours 5 mins



कभी-कभी कुछ नया करने के लिए आपको नई सोच और नई चीजों पर दांव लगाना ही पड़ता है और वहीं से शुरुआत होती है एक नए इतिहास की।
फिल्म बेल बॉटम भी इसी तरह की एक चुनौतीपूर्ण घटना से प्रेरित फिल्म है, घटना पर आधारित फिल्म इसलिए नहीं कह सकते क्योंकि फिल्म को एक मसाला फिल्म बनाने के लिए रचनात्मक स्वतंत्रता ली गई है और वहीं पर यह फिल्म थोड़ा चूकती भी है क्योंकि सत्य घटनाओं को किसी भी मसाले की जरूरत नहीं होती है। यह शायद उनको नकली बना देता है।


बेल बॉटम की कहानी 80 के दशक की है और जिस तरह से प्रस्तुत की गई है वह आपको 80 के दशक का पूर्ण अनुभव कराती भी है। यह 1984 में हुए विमान अपहरण को हमारे सामने प्रस्तुत करती है और उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जी के एक सराहनीय फैसले को भी हमारे सामने प्रस्तुत करती है। यहां मैं एक बात और जोड़ना चाहूंगी कि RAW की स्थापना में इंदिरा गांधी का पूर्ण समर्थन और योगदान रहा है।
फिल्म पूर्ण रूप से खिलाड़ी कुमार की फिल्म है और वह पूरी तरह से खेल भी गए हैं। उन्होंने कोई चूक का मौक़ा नहीं दिया है और अपने सभी रंग (shades) प्रदर्शित किए हैं। फ़िल्म में वह एक Raw एजेंट की भूमिका में हैं, जितना कोड नेम बेल बॉटम है। इसके अलावा फ़िल्म में लारा दत्ता भी इंद्रा गांधी जी के किरदार में हैं और उनकी वेष भूषा भी बिल्कुल उपयुक्त रही है इस क़िरदार के लिए किंतु उनके पास करने को कुछ खास नहीं था कि वह अपनी छाप छोड़ पातीं और यही कहीं ना कहीं वाणी कपूर और हुमा कुरैशी के साथ भी हुआ है। क़िरदार ज़रूर हैं किंतु कुछ अलग कर दिखाने की संभावना उन किरदारों में नहीं है। इसी के साथ एक किरदार जो आपके ज़हन में रह जाएगा, वह है ज़ैन खान का, वह भी सिर्फ उनकी अदाकारी की वजह से क्योंकि करने के लिए इस किरदार के पास भी बहुत कुछ नहीं था किंतु जितना किया वह उनकी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए काफी था शायद। अच्छी अदाकारी।


फिल्म की रफ्तार फ़िल्म का सबसे बड़ा सकारात्मक पहलू है, जिसके चलते आप फ़िल्म से जुड़े रहते हैं। फ़िल्म में भूत और वर्तमान की कहानी का समिश्रण भी काफी बेहतरीन तरीके से बिठाया गया है।
फ़िल्म की कहानी आप को पूरी तरह से पकड़ कर रखती है और आप सोचते हैं, अब क्या होगा अब क्या होगा…
जो चीजें थोड़ी सी खड़कती हैं, वे हैं,
फिल्म का सिर्फ सत्य घटना से प्रेरित होना, आधारित ना होना।
सभी किरदारों को पूर्ण रूप से उपयोग ना करना।
फिल्म उतना भावुक और देश भक्ति का जज़्बा उत्पन्न नहीं करती जितना जरूरी था।


बाकी एक अच्छी फ़िल्म है। बिल्कुल देखे जाने योग्य है।

Candy :- Unwrap the sin…

कलाकार :- रॉनित रॉय, रिचा चड्ढा, मनु ऋषि चड्ढा,
नकुल रोशन सहदेव, गोपाल दत्त और रिद्धि कुमार ।।
निर्देशक :-  आशीष आर शुक्ल
प्रस्तुतकर्ता :- Voot Select
⭐⭐⭐⭐


“लोग जितना दिखाते हैं,
उससे कहीं ज्यादा वह अपने अंदर छुपा कर रखते हैं।”
यही voot select की नई series “Candy” हमको दिखाती है, जैसे कि उसके नाम में ही है “Unwrap The Sin”
हर व्यक्ति जो कुछ भी होता है या बनता है उसका बहुत गहरा संबंध उसके अतीत से जुड़ा होता है और अतीत हमेशा सुखद नहीं होता। कुछ लोग उसको अपना अतीत समझ कर भूल जाते हैं और अपने वर्तमान को बेहतर बनाते हैं और कुछ अपने वर्तमान पर भी उस अतीत के छिटों को आने देते हैं। Candy भी उसी तरह की कहानी है जहां लोगों का अतीत उनके वर्तमान का हाथ पकड़ कर चल रहा है।


Voot select की इस Candy का स्वाद काफी दिन तक आपके जेहन में रहने वाला है। इसमें आपको वह सब मिलेगा जो एक सस्पेंस थ्रिलर को यादगार बनाता है।
– यह सीरीज आपको शुरू से अंत तक अपने साथ पूर्ण रूप से जोड़ कर रखती है।
– कहानी का कसाव मस्तिष्क से किसी भी एपिसोड में ढीला महसूस नहीं होता है।
– किरदारों को सीमित रखा गया है जिसकी वजह से कोई भी किरदार अतिरिक्त नहीं लगता है।
– सबसे अहम और महत्वपूर्ण बात जो कि इस सीरीज के अनुभव को और भी दिलचस्प बनाती है वह है सस्पेंस के अंदर सस्पेंस देखने को मिलना।

कहानी की बात करें तो, कहानी एक रूद्रकुंड नाम की जगह की है। जो पहाड़ों पर एक खूबसूरत सा गांव है, यहीं पर एक बोर्डिंग स्कूल भी है। जहां के बच्चों को कैंडी की लत्त है और यह कोई आम कैंडी भी नहीं है, यह है नशे की कैंडी तो कहने का तात्पर्य है कि इन बच्चों को नशे की लत्त है। अब यह तो हुई एक बात, इसी के साथ यहां कुछ मडर्स भी आए दिन होते रहते हैं। जिनका पता अभी तक नहीं लग पा रहा है कि इसकी वजह क्या है। अब इसी के साथ पहाड़ों में एक और दंतकथा विराजमान है जो है “मसाण” की। लोगों को लगता है कि यह सब मर्डर मसाण की वजह से हो रहे हैं। कहानी बस इतनी सी ही है लेकिन जिस तरह से इस कहानी को व्यक्त किया गया है वह बहुत ही उम्दा है।
कभी-कभी चीजों को उसका काबिल ए बयां भी दिलचस्प बना देता है और यहां भी कुछ ऐसा ही हुआ है। कहानी अच्छी है और जैसे बयां की गई है वह और भी बेहतरीन हो गई है।
निर्देशक आशीष आर शुक्ल एक बार फिर खेल गए हैं और उन्होंने बॉल को पूरी तरह से हवा में उछाल दिया है अब छक्का ना भी लगा तो, चौका तो कोई भी नहीं रोक सकता है।
अदाकारी की बात करें तो सबसे ज्यादा आपको जो प्रभावित करने वाले हैं, वह नाम है नकुल रोशन सहदेव। इनकी अदाकारी कुछ उस दर्जे की है कि आप उनके ऊपर से अपनी नजरें नहीं हटा पाएंगे। इसके बाद जो नाम आता है, वह है रिद्धि कुमार, इन्होंने भी अपनी उपस्थिति काफी पुख्ता तौर पर दर्ज कराई है। अब बात करते हैं, रॉनित रॉय, रिचा चड्ढा और मनु ऋषि चड्ढा की, बिल्कुल वही कार्य किया है जिसके लिए इनको जाना जाता है।
एकदम उम्दा और अपने किरदारों के अनुरूप।

तो कुल मिलाकर एक बेहतरीन सीरीज का आगमन हुआ है। इसका सस्पेंस आपको अपने में उलझा कर रखेगा और सुलझने के बाद भी आपके मुंह का और ज़हन का जायका बिल्कुल भी खराब नहीं होने देगा।
मेरी तरफ से यह सीरीज बिल्कुल देखे जाने योग्य है।

MIMI :- कहानी MIMI की !

कलाकार :- कृति सेनन, पंकज त्रिपाठी, मनोज पाहवा सुप्रिया पाठक, सई ताम्हणकर ।

निर्देशक :-  लक्ष्मण उतेकर

प्रस्तुतकर्ता :- Netflix & Jio Cinema।

⭐⭐⭐💫 3.5/ 5

अवधि :- 2 hours 12 mins.

कुछ फिल्में, फिल्म ना होकर एहसास होती हैं। निर्देशक लक्ष्मण उतेकर की फिल्म MIMI भी उसी श्रेणी की फिल्मों में आती है। इससे पहले वह मराठी फिल्म टपाल और हिंदी फिल्म लुका छुपी का भी निर्देशन कर चुके हैं लेकिन कोई फिल्म जो उनको सही मायने में एक निर्देशक के रूप में स्थापित करती है, तो वह है फिल्म MIMI

फिल्म को जिस तरह से प्रदर्शित किया गया है, वह काफी सहज और स्वाभाविक सा लगता है। फिल्म का कोई भी किरदार अतिरिक्त नहीं नजर आता और ना ही अव्यवस्थित लगता है। सभी किरदारों को सही अनुपात में फिल्म के अंदर रखा गया है जो कि एक अच्छी फिल्म के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण बात है।

फिल्म MIMI, मराठी फिल्म मला आई व्हायचय पर आधारित है जिससे सर्वश्रेष्ठ मराठी फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिल चुका है।

फिल्म MIMI का विषय सरोगेसी है। यदि आपने फिल्म का ट्रेलर देखा है, तो यह बात तो आपको वहीं पर स्पष्ट हो गई होंगी। एक ऐसा समय था जब भारत विदेशी लोगों के लिए सरोगेसी का ठिकाना बन गया था और यहां के लोगों के लिए यह एक व्यापार। इस फिल्म के जरिए उसी चित्र को प्रदर्शित करने की चेष्टा की गई है। इस विषय के साथ फिल्म एक और मुद्दे को भी उठाती है जो है ADOPTION (गोद लेना)। फिल्म यह कहने का प्रयास करती हुई भी नजर आई है कि “सरोगेसी ही सिर्फ एकमात्र विकल्प नहीं है, उन दंपतियों के लिए जो संतान सुख से वंचित हैं, वह बच्चे को गोदी भी ले सकते हैं।

“मां-बाप बनने के लिए बच्चा अपना होना ही जरूरी नहीं है।”

यह सच में एक महत्वपूर्ण और सुंदर संदेश है समाज के लिए।

MIMI, एक स्त्री प्रधान फिल्म है। जिसमें कोई Hero type Hero नहीं है लेकिन यह आपको फिल्म देखते समय कहीं भी महसूस नहीं होगा और इसका सारा श्रेय जाता है पंकज त्रिपाठी और कृति सेनन को।

सर्वप्रथम बात करते हैं पंकज त्रिपाठी जी की, यदि वह किसी भी फिल्म के कलाकार हैं तो आपको एक बात के लिए तो बिल्कुल आश्वस्त हो जाना पड़ेगा कि उनका किरदार आपको बिल्कुल भी निराश नहीं करेगा और आपकी अपेक्षाओं पर उसी रूप में खरा उतरेगा जिस रूप में आपने आशा की है।यह अभी तक का उनका फिल्मों का रेखाचित्र है।यहां भी वह जिस भी दृश्य में हैं वह देखने योग्य है और उम्दा है। वह सच में अपनी प्रतिभा के धनी हैं। अब बात करते हैं कृति सेनन की, वह देखने में जितनी सुंदर हैं यहां अदाकारी भी उन्होंने उसी श्रेणी की दिखाई है। एक नटखट और चुलबुली लड़की से एक परिपक्व मां तक का उनका सफर, इन 2 घंटों में बड़ा ही सहज लगता है और यह ही उनके अभिनय का स्तर भी दिखाता है। उनकी और पंकज त्रिपाठी जी की केमिस्ट्री भी काफी स्वभाविक और वास्तविक लगती है।

बाकी सहायक कलाकारों की बात करें तो, चुनाव ही ऐसा था कि चूक की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। मनोज पहावा, सुप्रिया पाठक मतलब कहें तो नाम ही काफी हैं। इसी के साथ सई ताम्हणकर ने सभी का बेहतरीन ढंग से साथ दिया है, और अपनी उपस्थिति भी पूर्ण रूप से दर्ज कराई है।

फ़िल्म के कमजोर पक्ष की बात करें तो, फिल्म का तकनीकी पक्ष उतना सशक्त नहीं है और फिल्म अंत में थोड़ी खींची-खींची हुई सी लगती है बाकी एक मजेदार फिल्म है देखने के लिए और आप लोग देखें भी जरूर । 😊

Note : फिल्म 30 जुलाई को प्रसारित की जाने वाली थी किंतु 26 जुलाई को सुबह ऑनलाइन लीक हो जाने की वजह से, 26 जुलाई को शाम ही प्रसारित कर दी गई।

हसीन दिलरूबा : दिनेश पंडित की कोई किताब…

कलाकार :-  तापसी पन्नू, विक्रांत मेस्सी ,हर्षवर्धन नाराणे, यामिनी दास, आदित्य श्रीवास्तव आदि।
निर्देशक :-  विनिल मैथ्यू
लेखक  :-  कनिका ढिल्लों
प्रस्तुतकर्ता :- Netflix
⭐⭐⭐💫 3.5/ 5
अवधि :- 2 hours 15 mins

आपने दिनेश पंडित जी की कोई किताब पढ़ी है ???
क्या लिखते हैं वो… वह छोटे-छोटे शहरों में ना बड़े-बड़े कत्ल करा देते हैं… पता भी नहीं चलता..।

तो यह डायलॉग है कनिका ढिल्लों की लिखी नई फिल्म हसीन दिलरूबा का, जहां इस डायलॉग से ही पता चल जाता है कि कोई मर्डर मिस्ट्री है। 

जब हम ट्रेन के सफर पर जाया करते थे और लगता था कि सफर आसानी से कट जाए और हमें पता भी ना चले तो कई बार स्टेशन से कोई किताब ले लिया करते थे, जिसमें हमें हर तरह का तत्व या कहें तड़का मिल जाए। रोमांच और रोमांस सब कुछ एक साथ। तो हसीन दिलरूबा को देखते हुए आपको वही वाली अनुभूति होगी, जैसे कि आप दिनेश पंडित की लिखी हुई कोई किताब पढ़ रहे हैं। लेखक ने जो कुछ भी लिखा है या वह जो बता रहा है वही उस समय की वास्तविकता है। जिसमें आपके दिमाग की कोई भी आवश्यकता नहीं है और यदि आपने लगाया तो आप उस आनंद से वंचित रह सकते हैं जो वह किताब आपको देना चाहती है या दे रही है।
कहने का तात्पर्य है कि यह फिल्म भी आपको वास्तविक दुनिया से अलग अपनी ही दुनिया में ले जाती है और उसमें जो घटित हो रहा है वह सब देखने लायक है यदि आप उसको एक फिल्म की कहानी के तौर पर ही वजन दें क्योंकि उसका वास्तविकता से कोई लेना-देना ही नहीं है। एक अलग तरह की कहानी को विनिल मैथ्यू ने एक अलग ढंग से प्रस्तुत किया है। जो फिल्म को दिलचस्प बनाता है और आपको पैसा वसूल कराने वाली अनुभूति कराता है।
फिल्म की मजबूत कड़ी, फिल्म की कहानी का थोड़ा हटकर होना और सभी कलाकारों का अभिनय है, जो इस कहानी को आप तक इस तरह से पहुंचाते हैं कि आप उसका हिस्सा बन जाते हैं। इसी के साथ अमित त्रिवेदी का संगीत फिल्म की कहानी को परिष्कृत करने का कार्य करता है और इसी कड़ी को जयकृष्ण गुम्मड़ी की सिनेमैटोग्राफी आगे बढ़ाती है।
फिल्म की कहानी प्रेम त्रिकोण है लेकिन ऐसा त्रिकोण जो आपको पुराना होते हुए भी नया लगेगा। कनिका ढिल्लों ने इसके अंदर कई परतों को शामिल किया है जिसके चलते आपको प्यार और नफरत के अलग-अलग रंग दिखाई देंगे जो नए और अनूठे लगते हैं।
फिल्म के कमजोर पक्ष की बात करें तो फिल्म वास्तविकता से काफी दूर है, जिसके चलते तर्क से भी इसका कोई वास्ता नहीं है। तो यदि आपने दिमाग लगाया तो  निराशा ही हाथ लगेगी और वहीं दूसरी तरफ यदि आप एक मसाला फिल्म देखना चाहते हैं तो अच्छा चुनाव है इस वीकेंड के लिए। 😊



My Take :-

यामिनी दास (सास) और तापसी पन्नू (बहू) का रिश्ता बड़ा अजब है, जो मन को भाता है ।
तापसी पन्नू, विक्रांत मेस्सी, हर्षवर्धन नाराणे अपने-अपने किरदारों के अनुरूप लगे हैं ।

ग्रहण : सत्य व्यास की “चौरासी” ।

कलाकार :- जोया हुसैन, अंशुमान पुष्कर, वामीका गब्बी, सहीदुर रहमान और पवन मल्होत्रा आदि ।

निर्देशक :- रंजन चंदेल

प्रस्तुतकर्ता :- Disney Plus Hotstar ⭐⭐⭐⭐

इस कदर मैंने सुलगते हुए घर देखे हैं । अब तो चुभने लगे आंखों में उजाले मुझको ।। “कामिल बहज़दी”

कुछ लोगों ने ऐसी जिंदगी जी और ऐसी दास्तानें देखी होती हैं जिनके सिर्फ कल्पना मात्र से हमारा शरीर नम हो जाता है। उसी तरह की एक भयानक दास्तान को डिज्नी प्लस हॉटस्टार की सीरीज अपने अंदर समेटे हुए आपके समक्ष प्रस्तुत करती है।

“ग्रहण”, सत्य व्यास जी के उपन्यास “चौरासी” पर आधारित है और 1984 में हुए सिख दंगों की कहानी को अपने तरीके से बयां करती है।

मनुष्य सबसे ज्यादा घातक और खतरनाक तब होता है जब वह किसी भी तरह की कुंठा से ग्रस्त होता है,चाहे वो उसका गरीब होना हो, किसी से ईर्ष्या या द्वेष की भावना हो या फिर अपने आप को किसी भी तरह से निम्न समझना हो। किसी भी कुंठा से ग्रस्त होने पर आप नकारात्मकता की तरफ आसानी से चले जाते हैं और किसी के भड़काने पर कुछ भी कर जाते हो, अपने आपको उस कुंठा से मुक्त करने के लिए। और यही इस तरह के सांप्रदायिक दंगों की मुख्य नींव होती है। 1984 में जो सिख दंगे हुए वह इसका मुख्य उदाहरण है।

निर्देशक रंजन चंदेल की ग्रहण की कहानी शुरू होती है एक जर्नलिस्ट की हत्या से, 2016 में किंतु उसके तार 1984 के सिख दंगों से जुड़े होते हैं। ग्रहण 2016 और 1984 को एक साथ लेकर चलती है और इन दोनों को एक साथ जोड़ने का सूत्र पिरोती हैं सीरीज की नायिका अमृता सिंह (जोया हुसैन) । अमृता सिंह रांची की एसपी हैं और दो राजनीतिक दलों के बीच में मुख्यमंत्री बनने और चुनाव जीतने की जंग के चलते बोकारो में हुए 1984 के सिख दंगों की जांच का कार्य शुरू होता है और उसकी बागडोर अमृता सिंह के हाथ में आती है। जब कहानी आगे की तरफ रुख करती है तो इन दंगों से अमृता सिंह के खुद के भी निजी तार जुड़े होते हैं, उन्हीं को सुलझाना और सच को सबके सामने लाना ही अमृता सिंह का उद्देश्य है।

अगर आपने पुराने जमाने वाला प्यार कभी भी जिया है या सच में देखना चाहते हैं तो आपको सीरीज के एक प्रेमी जोड़े से सच में प्यार हो जाएगा, वह है लेखक सत्य व्यास जी के बुने दो किरदार ऋषि (अंशुमन पुष्कर) और मनु(वामीका गब्बी)। आपको उनकी कहानी को सच में जीने का मन करेगा और वह आपको अपनी उस दुनिया का हिस्सा बना लेंगे। इन दोनों किरदारों को देखकर आपको सत्य व्यास जी की चौरासी पढ़ने की उत्सुकता और भी बलवती हो जाएगी क्योंकि मेरे साथ यही हुआ है।

ग्रहण की कहानी 2016 और 1984 को एक साथ लेकर चलती है और सही निर्देशन और कमलजीत सिंह के सधे हुए कैमरा वर्क के चलते दोनों वक्त बखूबी निखर कर पर्दे पर आए हैं और आपको वह अंतर साफ तौर पर नजर आएगा। इस दंगे भरे माहौल में जो एक ठंडी बयार का काम करता है, वह है अमित त्रिवेदी का संगीत जब ऋषि और मनु पर्दे पर होते हैं और पीछे का संगीत, मानो ऐसा लगता है वक्त कुछ समय के लिए वहीं थम सा गया है। बड़ा ही सुकून देता है।

ग्रहण में देखने योग्य बहुत कुछ है …

  • एक अच्छा विषय जो ताजगी से भरा हुआ लगता है।
  • एक मजबूत कहानी जो उस वक्त को जीवित करती है।
  • अव्वल दर्जे का अभिनय जो सब कुछ सहज बना देता है।
  • कलाकारों का चयन जो किरदारों के अनुरूप है।
  • बेहतरीन निर्देशन और कैमरा वर्क।

ग्रहण के कमजोर पक्ष पर आए तो थोड़ा अवधि खटक जाती है। जिसकी वजह से कहानी थोड़ी खींची खींची और कमजोर लगने लगती है। यहां मेकर्स को यह ध्यान देना आवश्यक था की कहानी उतनी ही बढ़ाई जाए जितनी उसकी कसावट आपको इजाजत दे। बाकी एक अच्छा विषय है और यह सीरीज हिंदी लेखकों का OTT के मंच पर स्वागत करती है और यह दर्शाती है कि अच्छे विषय और अच्छा साहित्य आपके आसपास ही होता है और है भी, बस जरूरत है तो सही और पारखी नजरों की।

My Take

  • सत्य व्यास जी के उपन्यास चौरासी को पढ़ना आवश्यक हो जाता है।
  • जोया हुसैन, अंशुमन पुष्कर, और वामीका गब्बी अतिरिक्त प्रशंसा के हकदार हैं।

Sherni : अनछुई दुनिया…

लेखक :-  आस्था टीकू, यशस्वी मिश्रा, अमित मसुरकर।

निर्देशक :- अमित मसुरकर

अवधि :-  2 घंटा  10 मिनट

OTT :-  Amazon Prime video
⭐⭐⭐💫 3.5 / 5

किसी भी निर्देशक को सर्वप्रथम यह पता होना बहुत अनिवार्य होता है कि वह फिल्म किस प्रकार के दर्शकों के लिए बना रहा है।या उसका दर्शक वर्ग क्या देखना चाहता है और यही प्रश्न किसी भी फिल्म का भविष्य काफी हद तक निर्धारित करता है। क्योंकि,

हर फिल्म हर व्यक्ति के लिए नहीं होती,उसी प्रकार हर व्यक्ति हर फिल्म के लिए।

निर्देशक अमित मसुरकर ने भी अपनी फिल्म उसी तरह के दर्शक वर्ग के लिए बनाई है, जो उनके सिनेमा को समझने का हुनर रखते हैं। जब आप किसी व्यक्ति को समझदार मानते हो तो यह आशा करते हो कि वह कम शब्दों में भी आपकी बात को पूर्ण रूप से समझ जाएगा और अमित मसुरकर भी कम शब्दों में अपनी बात को पुख्ता तौर पर रखने में माहिर हैं, जो कि हम लोग न्यूटन में भी देख चुके हैं।

फिल्म में एक संवाद है, जो नीरज कबि के द्वारा बोला गया है और यह फिल्म के मर्म को काफी हद तक बयां कर देता है।

अगर विकास के साथ जीना है तो पर्यावरण को बचा नहीं सकते और अगर पर्यावरण को बचाने जाओ तो विकास बेचारा उदास हो जाता है।

कहने का तात्पर्य है कि विकास और पर्यावरण दोनों अनिवार्य हैं और दोनों के बीच में सामंजस्य बिठाना ही आज की सबसे बड़ी चुनौती है। शेरनी का मुद्दा आदमी वर्सेस जानवर की कहानी को बिना किसी चांदी का बर्क पहनाए आप लोगों के सामने जैसे का तैसा प्रस्तुत कर देना है। कहने को तो कहानी एक शेरनी को बचाने की है जो आदमखोर हो चुकी है, लेकिन कोई शेरनी को सच में बचाना भी चाहता है कि नहीं यह सोचने योग्य विषय है। वहीं एक ईमानदार और अपने काम को लगन से करने में विश्वास रखने वाली वन विभाग की प्रमुख विद्या विन्सेंट(विद्या बालन) हैं, जो सच में शेरनी को सुरक्षित उसके सही स्थान पर पहुंचाना चाहती हैं और उसमें उनका साथ देते हैं प्रोफेसर हसन(विजय राज) और गांव के कुछ लोग। इसी के विपरीत उनके कार्य में बाधा बन रहे हैं … गांव की राजनीति, विभागीय राजनीति,कुछ प्राइवेट शिकारी और काफी हद तक पितृसत्ता जहां उनका अकेला आदमियों के बीच में कार्य करना आता है। फिल्म की कहानी में ऐसा कुछ नहीं है जो पहले देखा या सुना ना गया हो, बस इसको प्रस्तुत करने का ढंग अमित मसुरकर का है जो इसे बाकी फिल्मों से भिन्न करता है।

फिल्म एक फिल्म ना लग कर डॉक्यूमेंट्री ज्यादा लगती है, जो फिल्म के पक्ष में भी है और विपक्ष में भी। यहां किसी भी फिल्मी मसाले का प्रयोग नहीं किया गया है। फिल्म बड़ी सादगी से अपनी बात कहती है और आपके दिमाग में एक छाप और कई सवालों को जन्म देती है। जैसे कि पहले भी कहा है कि यह वाला सिनेमा सबके लिए नहीं है और यदि आपको चकाचौंध, मसाला और सब कुछ सुंदर-सुंदर चाहिए होता है तो यह फिल्म आपके लिए बिल्कुल भी नहीं है।

फिल्म की जान विद्या बालन का अभिनय है। वह जो भी सोच रही हैं, जी रही हैं, महसूस कर रही हैं… वह सब, वह आप तक बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के बड़ी सहजता से पहुंचा देती हैं। उनका यही सादगी से भरा हुआ अभिनय उनका कद फिल्म दर फिल्म बढ़ाता जा रहा है।यदि आप विद्या बालन के फैन हैं तो भी यह फिल्म आपके लिए है। 😊