Jogi ( 1984 की झांकी)

16 सितंबर 2022 को नेटफ्लिक्स पर एक फिल्म आई है।
नाम है जोगी, मैंने अभी कुछ दिन पहले ही देखी है और जब से देखी है कुछ चीजें सच में मेरे ज़हन में चल रही हैं। जो चाह कर भी मैं अपने मन से और दिमाग से नहीं निकाल पा रही हूं।
सबसे पहली चीज जो इस फिल्म को देखने के बाद मेरे मस्तिष्क में आई वह है
लोग इतनी नफरत लाते कहां से हैं…
फिल्म की पृष्ठभूमि 1984 की है जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या होने पर सिख विरोधी दंगे शुरू हो गए थे और उन 3 दिनों ने भारत के नक्शे को कितना लाल और इतिहास को कितना काला किया था सभी को वह व्यथा ज्ञात ही है।
यदि हम को इंसान का जन्म मिला है तो एक इंसान में जितनी भावनाओं का वास होना चाहिए उनका होना बहुत ही सामान्य सी बात है यदि किसी व्यक्ति से बेइंतेहा प्रेम है तो उससे नफरत भी लाजमी है किंतु किसी एक से ही नफरत ना… पूरे परिवार से नफरत नहीं हो सकती… पूरी कौम से तो कदापि नहीं हो सकती !
एक और बात मानी जा सकती है कि मेरे परिवार के किसी व्यक्ति की हत्या हुई है तो मेरे अंदर बदले की भावना ने घर कर लिया है और मुझे उस व्यक्ति से बदला चाहिए तो भी यह बदला व्यक्ति विशेष का व्यक्ति विशेष से ही होगा ना उसको इस तरह के नरसंहार में परिवर्तित कर देना कहां का न्याय संगत कार्य है।
चलो लोग नफरत वाले कोण को तब भी भूना लेंगे, कि भाई हमारा व्यक्ति मरा है, हमें है गुस्सा, है आक्रोश लेकिन एक जो सबसे बड़ा पहलू इन दंगों के पीछे देखने में आता है वह है

सत्ता और पैसे की कभी ना तृप्त होने वाली चाह।
इसको राजनीतिक मुद्दा बनाकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन उन लोगों पर करना जिनका इस घटना से दूर-दूर तक कोई लेना देना ही नहीं है। हर व्यक्ति की बोली है। जो ज्यादा आम है उसकी मौत के दाम कम हैं जो आम से थोड़ा खास है उसके दाम भी ख़ास हैं।
मारने वाले पैसों के लालच में उन व्यक्तियों को मौत के घाट उतार रहे हैं जिनको उन्होंने कभी ना देखा ना जानते ही हैं। खुद की संवेदना और स्वयं विवेक की हत्या वो पहले ही कर चुके हैं।
यदि भगवान को किसी एक व्यक्ति के पीछे ही सबको चलाना होता तो वह सबको समान रूप से विकसित करके क्यों भेजता किंतु यह सोचने की जरूरत क्या है। नफरत अपने चरम पर है कि जो शक्तिशाली व्यक्ति ने कहा वह करना है बस ।
कहने को तो कहा जाता है कि मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है किंतु फिर भी लोग कितने मरते हैं। इन दंगों में भी लोग मरे लेकिन सही रिकॉर्ड किसी के पास नहीं है।
फिल्म में दंगों के साथ-साथ एक प्रेम और सद्भावना का मिश्रण दोस्ती के रूप में दिखाया गया है। जो बहुत ही पवित्र और प्यारा है। किसी की मदद करने के लिए आपको भगवान होने की जरूरत नहीं होती है सिर्फ पूर्ण रूप से इंसान होना पड़ता है। जब मारने वाले मार रहे थे तो बचाने वाले बचा भी रहे थे और अपनी जान को दांव पर लगाकर बचा रहे थे। जिसके चलते लोग बचे भी हैं और जब वह लोग यह दास्ताने सुनाते हैं तो दिल दहल जाता है।कि कैसे घरों को जलाया गया, जिंदा लोगों को जलाया गया पुलिस रक्षक ना होकर भक्षक हो गई।
फिल्म सभी भावनाओं का मिश्रण है अली अब्बास जफर की फिल्म जोगी फिल्मी अंदाज में एक डॉक्यूमेंट्री ही है। जो आपको 1984 में जो हुआ.. क्यों हुआ ? क्या वह होना चाहिए था ? क्या उसको रोका जा सकता था ? इन सब तथ्यों के बारे में सोचने और अधिक जानने की जिज्ञासा को मजबूत कर देती है।फिल्म में सभी का अभिनय काबिले तारीफ है फिर भी 4 नाम उल्लेखनीय है
दिलजीत दोसांझ
मोहम्मद जीशान अय्यूब
हितेन तेजवानी और कुमुद मिश्रा ।
फिल्म बिल्कुल देखे जाने योग्य है और देखकर सोचे जाने योग्य भी है।

MODERN LOVE MUMBAI

Rating :- 3.5 / 5 ⭐⭐⭐💫
OTT :- Amazon prime

अमेरिकन वेब सीरीज मॉर्डन लव की तान से तान मिलाता हुआ मॉर्डन लव मुंबई भी आ चुका है और अपने साथ दिग्गज निर्देशकों की फौज और कुछ बहुत ही खूबसूरत कहानियों को हमारे सामने अपने मॉर्डन अंदाज में परोसता है।

यहाँ बात प्यार की हो रही है जैसे कि नाम से ज्ञात हो जाता है।
प्यार का कोई रंग रूप नहीं होता, वह हर व्यक्ति विशेष के हिसाब से बदलता है। उसके समीकरण उसके पैमाने वक्त के साथ अपना स्वरूप विकसित और भिन्न करते आए हैं। प्यार इतनी व्यापक और विस्तृत भावना है कि उसके अंदर असंख्य भावनाएं समा सकती हैं।
🔹वह हमको आजादी के साथ बंधना सिखाता है।
🔹वह ठहराव के साथ-साथ बहना भी सिखाता है।
🔹वह परिपक्वता के साथ-साथ बचपने को भी जीवित रखता है।
🔹वह फिक्र में भी बेफिक्री देता है।
कहने का तात्पर्य है कि इससे खूबसूरत भावना, अनुभूति और मनोभाव कुछ हो ही नहीं सकता और सबसे महत्वपूर्ण यह कभी भी आपको अकेला महसूस नहीं होने देता।
इन्हीं सब भावों से परिपूर्ण कहानियां हैं
मॉर्डन लव मुंबई के 6 अध्यायों के अंदर।

सभी कहानियां अपने अपने अंदाज मे प्यार की अपनी-अपनी परिभाषा को प्रस्तुत करती हैं और नएपन का एहसास भी देती हैं।
इन सभी कहानियों में से जो मेरी व्यक्तिगत प्रिय कहानियां हैं वह कुछ इस प्रकार हैं।

CUTTING CHAI :- निर्देशक नूपुर अस्थाना की कटिंग चाय का जो ज़ायका है वह जुबान से उतरने में खासा वक्त लेता है।
इतनी कमाल चाय बनाई है कि मुझ जैसे चाय प्रेमी को तो भा ही गई। कहने का तात्पर्य यह है कि बहुत ही सुंदर प्रस्तुति, बहुत ही सरल अभिनय और बिल्कुल आप और हम जैसे किरदार। जब जिंदगी जीते जीते फीकी होने लगती हैं तब आपको जरूरत होती है कि कोई आए और कहे “चल शुरू से शुरू करते हैं” बस फिर क्या है सफर फिर नया और ताजा लगने लगता है। अरशद वारसी की एक्टिंग हमेशा ताजगी का अनुभव कराती है और चित्रांगदा सिंह इतनी सुंदर कि नज़रें ही ना हटें। मतलब कि कहानी देख कर मजा ही आ गया। (⭐⭐⭐⭐💫)

RAAT RANI :- निर्देशक सोनाली बोस की रात रानी की महक ज़हन को वह अंदर वाली खुशी का अनुभव कराती है जो कुछ महत्वपूर्ण कार्य या सिद्धि के पूर्ण हो जाने पर होती है।
जिस प्रकार रात रानी की महक को दबाना मुश्किल है, वैसे ही व्यक्ति को भी उसकी सही क्षमता का पता लग जाने के बाद रोकना मुश्किल हो जाता है। यह कहानी भी यही पाठ हमें पढ़ाती है कि दूसरों की छत्र छाया या कंधों की जरूरत हमको नहीं है। हम खुद में उतने ही सक्षम है जितनी कि बाकी सब के साथ, जरूरत है तो बस इसको महसूस करने की। इस कहानी को फातिमा सना शेख ने अपनी अदाकारी से जीवित कर दिया है।
(⭐⭐⭐⭐)

BAAI :- निर्देशक हंसल मेहता की कहानी बाई हमें यह बताती है कि कुछ चीजों को समाज में इस तरह से निषेध घोषित कर दिया गया है कि अब वह चाहे कितनी भी पवित्र या शुद्ध भावना ही क्यों ना हो व्यक्ति उसको मानने से कतराते है और अपने आसपास के लोगों को भी इसके बारे में बताने में भय महसूस करता है। यह कहानी समलैंगिकता पर आधारित है और प्रतीक गांधी ने उस युवक जो इन परिस्थितियों से जूझ रहा है उसका किरदार बड़ी ही काबिलियत के साथ निभाया है और इसी के साथ रणवीर बरार की भी अदाकारी की शुरुआत बहुत ही पुख्ता तरीके से हुई है।
(⭐⭐⭐💫)

तो यह वह कहानियां हैं जिन्होंने कहीं ना कहीं मेरे मस्तिष्क पर अपना असर छोड़ा और सकारात्मकता की तरफ अग्रसर किया है।इसके अलावा भी इस सीरीज की बाकी तीन कहानियां भी बेशक देखने योग्य हैं और आपके सोच के खजाने में कुछ जोड़ कर ही जाने वाली हैं।
यदि आप मॉडर्न लव मुंबई देख चुके हैं तो अपने विचार मुझे बताइए और यदि नहीं तो देखकर जरूर बताइएगा।

The Fame Game !

⭐⭐⭐⭐ 4/5

निर्देशक : बिजॉय नांबियार, करिश्मा कोहली

लेखक : श्री राव

कलाकार : माधुरी दीक्षित, संजय कपूर, मानव कौल, राजश्री देशपांडे, मुस्कान जाफरी, सुहासिनी मुले, लक्षवीर सरन, गगन अरोड़ा

OTT : Netflix


तुम हुस्न परी तुम जाने जहां
तुम सबसे हसीन तुम सबसे जवां

अब आप सोच रहे होंगे कि यहां इन पंक्तियों का क्या अभिप्राय है तो यह पंक्तियां मैं प्रयोग कर रही हूँ सिर्फ और सिर्फ माधुरी दीक्षित के लिए। यह वह पंक्तियां हैं जो सीरीज को देखते समय अनायास ही मेरे मस्तिष्क में बार-बार आ रही थी। इससे आप अंदाजा तो लगा ही सकते हैं कि धक-धक गर्ल एक बार फिर से अपने इस OTT डेब्यू में लोगों को अपना दिल थाम कर रखने पर मजबूर कर देती हैं।
माधुरी दीक्षित अपने दशक की सबसे बेहतरीन, बहुचर्चित और बेहद खूबसूरत अदाकारा रही हैं और The Fame Game में भी वह इस बात को फिर से साबित करती हैं कि वह अपने समय में नंबर वन क्यों थी। किसी भी दृश्य के अंदर यदि माधुरी दीक्षित हैं तो वहां सभी लोग अपने आप ही नज़र आना कम हो जाते हैं, ऐसा कदापि नहीं है कि उन कलाकारों के अभिनय में कोई कमी है। किंतु माधुरी दीक्षित की अज़मत ही कुछ ऐसी है कि एक बार को उनके अलावा सब कुछ फीका फीका सा नज़र आने लगता है।
सीरीज की कहानी को श्री राव ने लिखा है, जिसको 45 to 50 मिनट्स के 8 अध्यायों में बांटा गया है। जिसका निर्देशन बिजॉय नांबियार और करिश्मा कोहली ने बहुत ही उम्दा तरीके से किया है। आपको इसके अंदर वह सभी मसाले देखने को मिलेंगे जिसकी वजह से b-town हमेशा सुर्खियों में रहता है किंतु थोड़े अलग फ्लेवर के साथ। तो जैसे कि आपको सीरीज के नाम और ट्रेलर से अंदाजा लग ही गया होगा कि कहानी एक फेमस हीरोइन के बारे में है, जो हैं अनामिका आनंद। उनका एक पति है, एक पुराना प्रेमी है, उनकी मां भी है, दो बच्चे भी हैं, एक पागल फैन भी है, तो कहने का तात्पर्य यह है कि सब तरफ से यह अभिनेत्री घिरी हुई है। अब उस पर इसका अपहरण भी हो जाता है, तो कहानी में पुलिस भी है। इसके अलावा इन सभी किरदारों की भी अपनी अपनी जंग है और अपना-अपना एक छुपाया या उलझा हुआ सा राज़ है। कुल मिलाकर यह सीरीज आपको अंत तक अपने अंदर पूरी तरह से उलझा कर रखेगी।
सीरीज की सबसे अच्छी और उम्दा बात यह है कि वह अनामिका आनंद से जुड़े हुए सभी किरदारों पर अपना पूरा ध्यान देती है ।किसी के साथ भी सौतेला व्यवहार नहीं करती। इसके चलते सीरीज थोड़ी धीमी जरूर प्रतीत होती है लेकिन सबको अपनी अदाकारी दिखाने का भरपूर मौका भी देती है।

क्यों देखनी चाहिए …
– माधुरी दीक्षित के फैन हैं तो
– Celebs की जिंदगी में दिलचस्पी रखते हैं तो
– आजकल की सीरीज से अलग मसाला चाहिए हो तो
– फिल्म को हिट कराने के पीछे के हथकंडे जानने हों तो
– मुस्कुराते चेहरों के पीछे रोते हुए दिलों की तड़प महसूस करनी हो तो

कुल मिलाकर बहुत सारी फिल्मों की झलक और उनके मसालों के साथ इस सीरीज को बनाया गया है, जो आपको कहीं कहीं कुछ देखी हुई चीजों की झलक दे सकती है किंतु फिर भी अपने नएपन को बरकरार रखते हुए अंत में आपको अपने क्लाइमेक्स के साथ थोड़ा चौंकाती भी है क्योंकि
सच के कई पहलू होते हैं और सभी को अपने हिस्से का सच ही सच लगता है।

A Thursday :- A Thursday not as good as A Wednesday

निर्देशक :- बेहजाद खंबाटा

कलाकार :- यामी गौतम , नेहा धूपिया , डिंपल कपाड़िया और अतुल कुलकर्णी

OTT :- Disney Plus Hotstar

⭐⭐💫 2.5 / 5

दर्द या पीड़ा सबसे ज्यादा कब महसूस होती है ???

जब वह आपकी अपनी होती है।

किसी और का दर्द उसी क्षमता से महसूस करने की क्षमता हम अभी तक अपने अंदर विकसित ही नहीं कर पाए हैं और जिन्होंने यह क्षमता जब कभी भी विकसित की है, वह समाज को हमेशा उन्नति की ओर ही लेकर गए हैं।

कुछ अपराध अक्षम्य होते हैं और उनको क्षमा की दृष्टि से देखे जाने का अर्थ है, उस अपराधिक सोच या मानसिकता को बढ़ावा देना। सही समय पर पड़ा हुआ एक थप्पड़ लोगों को पथ भ्रमित होने से बचा लेता है।

A Thursday भी हमारे सामने ऐसे ही विषय को अपने तरीके से प्रस्तुत करने का प्रयत्न करती है। फिल्म का विषय अच्छा है और फिल्म जो कहना चाहती है वह लोगों की आवाज भी है। लेकिन जब आप कोई फिल्म देख रहे होते हैं तो आपकी उम्मीद एक थ्रिलर फिल्म से क्या होती है, कि वह आपको विस्मित करें आपको चौकायें… तो यह फिल्म नहीं कर पाती है। जो भी फिल्म के अंदर हो रहा है उसका अंदाजा आप उसको देखते हुए लगा सकते हैं लेकिन हाँ यदि आप फिल्म देखना शुरू कर चुके हैं, और आपको फिल्म की कहानी का अंदाजा नहीं है, तो यह कहानी आप को पकड़ कर रखती है क्योंकि कुछ ना कुछ घटित हो रहा होता है।

फिल्म का मुद्दा बहुत अच्छा है लेकिन फिल्म विषय के दर्द को महसूस कराने में असफल रहती है, आप किरदार के दर्द से अपने आप को जोड़ नहीं पाते हैं तो जो भी यह फिल्म कर रही है वह बहुत ही उथला सा प्रतीत होने लगता है।

फिल्म बहुत सारे तारों को छूती है, वह सिस्टम को झंकझोर कर जगाने की बात करती है। वह मीडिया और सोशल मीडिया पर टिप्पणी करती है। फिल्म आपको सचेत और जागृत करने की तरफ प्रयासरत है। लेकिन इस तरह की जागृति पहले काफी फिल्में फैला चुकी हैं तो कुछ नया नहीं लगता है। नया है तो,

यामी गौतम को इस अवतार में देखना और वह प्रभावशाली भी दिखी हैं।

फिल्म को एक बार अवश्य देखा जा सकता है किंतु

A Wednesday को दिमाग से निकालने के उपरांत क्योंकि, नाम में समानता है काम में नहीं ।

Gehraiyaan Review

निर्देशक : शकुन बत्रा
कलाकार : दीपिका पादुकोण, अनन्या पांडे, सिद्धांत चतुर्वेदी, र्धैर्य करवा, नसीरुद्दीन शाह, रजत कपूर आदि
OTT : Amazon prime video
⭐⭐⭐



वैसे तो आज कल की दुनिया में हर कोई गहराइयों की तलाश में भटकता नजर आता है लेकिन यदि किसी फिल्म का नाम ही गहराइयां हो और उसको गहराई छू कर भी ना जाए तो आपको कैसा लगेगा… बिल्कुल वैसा ही जैसा कि इस फिल्म को देखने के बाद लगता है… “खालीपन” …शून्य सा ।
इस फिल्म के लिए कह सकते हैं “नाम बड़े और दर्शन छोटे”

इस फिल्म को देखने के बाद आपके दिमाग में जो रह जाता है वह है सिर्फ और सिर्फ दीपिका पादुकोण। सब कुछ उनके आसपास ही घूम रहा है और फिल्म देखने के बाद वह आपके दिमाग में कुछ समय के लिए घूमती रहने वाली हैं, यह तो पक्का है।

कभी-कभी चीज़ों को महसूस करना ही बहुत नहीं होता, उसको व्यक्त करना भी बेहद जरूरी पहलू होता है। यह फिल्म, इस फिल्म को बनाने वाले, फिल्म के कलाकार, सभी लोग कितनी भी गहराइयां महसूस कर रहे हों, किंतु ये सभी लोग इस को व्यक्त करने में चूक गए हैं जिसके फलस्वरूप फिल्म दर्शकों से संबंध स्थापित ही नहीं कर पाती है और बहुत ही उथलेपन से भावनाओं को प्रस्तुत करती हुई प्रतीत होती है।
कहानी को कहने का तरीका आपको किरदारों से जोड़ नहीं पाता है, जिसकी वजह से आप किसी भी किरदार की खुशी या गम को उन से जुड़ कर महसूस ही नहीं कर पाते हैं और फिल्म को सिर्फ एक फिल्म के तौर पर ही आंकने के अलावा आपके पास कोई विकल्प शेष नहीं बचता है।

फिल्म के कलाकारों की बात करें तो सब लोग अपनी जगह पर ठीक हैं, लेकिन कोई भी प्रभावित नहीं करता है, जो कि बहुत अच्छी बात नहीं है। कुल मिलाकर जो कलाकार आपको थोड़ा प्रभावित करता है, वह हैं दीपिका पादुकोण क्योंकि उन्हीं के पास कुछ करने के लिए धरातल है फिल्म की कहानी के अनुसार। बाकी कलाकारों के पास करने के लिए इतना कुछ नहीं है और यह बात कहीं ना कहीं खलती है।

अगर मैं कहूं तो मुझे फिल्म में जहां सच में गहराई नजर आती है, तो वह है, जहां नसीरुद्दीन शाह और दीपिका पादुकोण का अपनी बीती हुई जिंदगी को लेकर संवाद है, जो फिल्म के खत्म होने से कुछ समय पहले ही है। वह फिल्म का सर्वोत्तम अंश है, मेरे हिसाब से। इसके अलावा फिल्म में जो उम्दा है, वह है कौशल शाह की सिनेमैटोग्राफी, फिल्म का संगीत, फिल्म की लोकेशन और दीपिका पादुकोण की खूबसूरती।

फिल्म को एक बार जरूर देखा जा सकता है और देखा भी जाना चाहिए किंतु बहुत अधिक उम्मीद के साथ नहीं क्योंकि फिल्म जो बताने और दिखाने की कोशिश कर रही है वह सीधे तौर पर आप तक नहीं पहुंचा पाती है जिसके चलते आपको यह समझना पड़ता है कि आखिर यह फिल्म कह क्या रही है।


Human :- without Humanity !

⭐⭐⭐💫 3.5/5

कलाकार  :- शेफाली शाह , कीर्ति कुल्हारी , राम कपूर , इंद्रनील सेनगुप्ता , आदित्य श्रीवास्तव , सीमा बिस्वास और विशाल जेठवा

लेखक  :- मोजेज सिंह और इशानी बनर्जी

निर्देशक  :- विपुल अमृतलाल शाह और मोजेज सिंह

ओटीटी  :- डिज्नी प्लस हॉटस्टार

अवधि  :- 7 to 8 hours

Human होने के लिए जो सबसे पहली शर्त है वह है Humanity का होना, जो कि धीरे-धीरे व्यक्ति विशेष में उसके अपने निजी कारणों से या फिर सामाजिक कारणों की वजह से कहीं ना कहीं विलुप्त सी होती जा रही है। डिजनी प्लस हॉटस्टार की नई सीरीज Human इसी अमानवता भरे वातावरण को, हम सभी लोगों के समक्ष अपने ढंग से प्रस्तुत करती है। यह एक मेडिकल थ्रिलर है, जो डॉक्टर्स और फार्मा कंपनियों का एक नया और खौफनाक पहलू उजागर करती है।  कैसे कुछ लोगों की महत्वाकांक्षा, उनकी सनक बाकी लोगों की जिंदगियों को दांव पर लगा देती है।

वेब सीरीज Human की कहानी हमारे लिए नई है, इसलिए ताजी भी लगती है।  कहानी भोपाल में शुरू होती है, जहां भोपाल गैस कांड (1984)के निशान अभी तक पूरी तरह से गए नहीं हैं और लोग अभी भी उस कांड की वजह से कई बीमारियों से ग्रस्त हैं। जैसे कि हम सब जानते हैं कि कोई भी दवा बाजार में आने से पूर्व कई तरह के प्रयोगों से गुजरती है तब जा कर कहीं बाजार में उतारी जाती है।तो यहां दिखाया गया है कि कैसे दवाओं के ट्रायल को लेकर कंपनियां और डॉक्टर्स मिलकर इसको अपने फायदे के लिए उपयोग कर रहे हैं और गरीब लोगों की जिंदगियों के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है।

कहानी दो डॉक्टर्स के इर्द-गिर्द घूमती है। भोपाल के एक बड़े अस्पताल मंथन की सर्वज्ञाता डॉक्टर गौरी नाथ (शेफाली शाह) और उसी अस्पताल की एक नई डॉक्टर, डॉक्टर सायरा सभरवाल (कीर्ति कुल्हारी)। इन्हीं की जिंदगियों को केंद्र में रखकर दवा ट्रायल्स के नाम पर हो रहे अमानवीय व्यवहार की संरचना को प्रदर्शित किया गया है। कैंपों में गरीब लोगों को बिना बताए उन पर दवा का प्रयोग किया जा रहा है। इंसानों को भी गिनी पिग्स की श्रंखला में ही रख कर उनको भी ट्रायल का अंग बना लिया गया है। पीड़ितों को ना तो मुआवजा दिलाने वाला है कोई और ना ही न्याय।

सभी किरदारों को ग्रे शेड में दिखाया गया है कोई भी पूर्ण रूप से सही नहीं है और सभी किरदारों की अपनी अपनी एक वजह या कहानी है उनका इस तरह का होने की, लेकिन सच यह भी है कि…

जिंदगी सब के साथ सुखद नहीं होती लेकिन जरूरी तो नहीं ना सब खारे ही हो जाएं।

Human के अंदर, मुख्य कहानी के अलावा और भी छोटी-छोटी हर किरदार की अपनी एक कहानी भी है, जो ऐसा प्रदर्शित करती है कि एक साथ बहुत कुछ चल रहा है और जो कभी-कभी हमें मुख्य कहानी से भटका देता है और series को लंबा और धीमा बना देती है। Human की कहानी और किरदारों को ध्यान से देखो तो लगता है, इनको काफी सोच कर और गहराई के साथ लिखा गया है, गूढता पर कार्य किया गया है। किरदारों की बात करें तो शेफाली शाह का किरदार वह स्तंभ है जिस पर पूरी कहानी टिकी हुई है, बाकी सब किरदार इन्हीं के आसपास रचित हैं। यहां मैं एक बात जो विशेष रूप से अंकित करना चाहूंगी वह है, शेफाली शाह की अदाकारी और जो कुछ वह अपनी आंखों के जरिए बयां करती हैं, वहां शब्द और संवादों की जरूरत ही नहीं होती है। गौरी नाथ का किरदार उनसे बेहतर कोई कर ही नहीं सकता था। इसी के साथ नाम आता है, विशाल जेठवा का, आपको series देखते समय एक बार भी एहसास नहीं होगा कि वह acting कर रहे हैं, बहुत ही सहजता के साथ किरदार को निभाया है। अब बात करते हैं कीर्ति कुल्हारी की, एक बार फिर से ईमानदारी के साथ अपना कार्य करती नजर आती हैं।

कुल मिलाकर मोजेज सिंह और इशानी बनर्जी ने एक नई तरह की कहानी को लिखा है जो मेडिकल जगत के एक स्याह पहलू को सामने लाता है जिसको एक बार जरूर देखा जाना चाहिए।इसको देखने के लिए धैर्य और संवेदना दोनों की आवश्यकता है, कहने का तात्पर्य है उपयुक्त समय लेकर देखिएगा।

83 : A Historic Moment!

निर्देशक : कबीर खान
लेखक : कबीर खान, संजय पूरन सिंह चौहान, वसन बाला
संवाद : कबीर खान, सुमिता अरोरा
छायांकन : आसिम मिश्रा
Editing by : नितिन बेद
Casting by : मुकेश छाबरा
⭐⭐⭐⭐⭐ 5/5



‘ देर आए पर दुरुस्त आए ‘
यह कहावत पहली बार जब हम विश्वकप जीते थे, सन् 1983 में, तब भी सटीक बैठी थी और यह आज भी पूर्णतः सटीक है, निर्देशक कबीर खान की फिल्म 83 के लिए। फिल्म का इंतजार कब से किया जा रहा है और यह आते-आते आ भी गई है, और यहां मैं कह सकती हूं कि,
“आओ तो ऐसे आओ कि तुम्हारे आने को और आ कर छा जाने के हुनर को दुनिया याद करे..”
जिन्होंने इन पलों को जिया है या देखा है उनका तो अंदाज ए बयां कुछ और हो सकता है लेकिन जिन्होंने यह पल सिर्फ सुने या पढ़े हैं वह भी जब इन दृश्यों को पर्दे पर देखेंगे तो गर्व से छाती चौड़ी हो जाएगी और खुशी के आसुओं से आंखें दमक उठेंगी।
हर चीज को शब्दों में बयां कर पाना मुमकिन नहीं होता है और यह फिल्म 83 वही काम करती है कि आपके पास बखान करने के लिए उपयुक्त शब्दों की कमी सी प्रतीत होने लगती है।

83 शानदार क्यों है …

– क्रिकेट प्रेमी हैं तो इससे शानदार तरीके से आप 25 जून 1983 को महसूस नहीं कर सकते।
– क्रिकेट में देश की पहली जीत का जश्न मनाना चाहते हैं तो इससे बेहतर मौका नहीं मिल सकता।
– टीम वर्क किसको कहते हैं वह आपको इस फिल्म से उम्दा तरीके से कोई बता ही नहीं सकता
– एक 1983 में कपिल देव की टीम थी।
– और एक 2021 में कबीर खान की है।
– सपनों को हकीकत की पोशाक कैसे पहनाते हैं उसका इससे उत्तम उदाहरण कुछ नहीं हो सकता।
– खुद पर विश्वास और सही दिशा का ज्ञान है तो फर्क नहीं पड़ता कि लोग तुम्हारे बारे में क्या बोलते हैं और क्या सोचते हैं, यह कपिल देव की आंखें और शारीरिक हाव-भाव आपको हर बार इस फिल्म में महसूस कराते हैं।
सबसे बड़ी बात जो 1983 की जीत और फिल्म 83 हमें बताती है वह है कि
” इज्जत मांगने से कभी नहीं मिलती उसके लिए आपको हर बार अपने आपको अपनी औकात से ज्यादा साबित करना पड़ता है”



फिल्म की कास्टिंग की बात करें तो इससे उत्तम और सटीक कास्टिंग कुछ हो ही नहीं सकती थी बेहतरीन काम और vision मुकेश छाबड़ा जी का। इसी के साथ फिल्म के संवाद, फिल्म की एडिटिंग, फिल्म का संगीत सब कुछ फिल्म में चार चांद लगाता है और फिल्म को बेहतर से बेहतरीन की दिशा में अग्रसर रखता है।
अब बात करते हैं फिल्म के कलाकारों की हर एक व्यक्ति तारीफ का हकदार है मुझे कोई भी कलाकार ऐसा नहीं दिखा जो उत्तम नहीं था किंतु जहां जाकर और जिसको देखकर आप नि:शब्द हो जाते हैं, वह है रणवीर सिंह की अदाकारी। आप जो सोच भी नहीं सकते हैं वह कार्य उन्होंने करके दिखाया है।
आप पूरी फिल्म में रणवीर सिंह को ढूंढते रह जाओगे लेकिन आपको कपिल देव के अलावा कोई और दिख जाए इस चीज की गारंटी मैं दे सकती हूं।
रणवीर सिंह सच में कमाल ही हैं और हर बार वह विस्मित ही करते हैं ।

अब आप मुझे बताइए कि आपको यह फिल्म देखने से कोई भी ताकत कैसे रोक सकती है तो बिना किसी देरी के थियेटर्स की तरफ प्रस्थान कीजिए…
⭐⭐⭐⭐⭐

The Family Man Season 2

The Family Man Season 2 सीरीज समीक्षा

निर्देशक  –  राज निदिमोरू, कृष्णा डीके, सुपर्ण वर्मा।

कलाकार  –  मनोज बाजपेई, समांथा अक्कीनेनी, शारिब हाशमी, प्रियामणि, सीमा बिस्वास, दलिप ताहिल, विपिन शर्मा, श्री कृष्ण दयाल, सनी हिंदूजा, शरद केलकर और राजेश बालाचंद्रन आदि

प्रस्तुतकर्ता    Amazon prime video
⭐⭐⭐💫 3.5/5



The Family Man Season 2 जिसका इंतजार अब 20 महीनों बाद खत्म हो चुका है और जिस जगह पर सीजन 1 का अंत हुआ था वहां से सीजन 2 के लिए विकलता एक सामान्य सी बात थी। श्रीकांत तिवारी अब आगे क्या करने वाला है दिल्ली को गैस अटैक से बचाने के बाद यह जानने के लिए सब लोग बहुत उत्सुक थे तो फिर अपने सवालों पर विराम चिन्ह लगा लीजिए। और हां, इस सीजन में आपको तेलुगू सुपरस्टार समांथा अक्कीनेनी भी नजर आएंगी जो अपना हिंदी डेब्यु इसी के साथ कर रही हैं।

कहानी की बात करें तो इस बार कहानी में बहुत सारे घुमाव नहीं हैं। सीरीज आपसे क्या कहना चाहती हैं इसका अंदाजा आपको शुरू की 3 कड़ियों के अंदर ही लग जाएगा। उसके उपरांत की कड़ियों (6) में किस तरह योजना को अंजाम तक पहुंचाया जाए, यह दिखाया गया है।


पिछली बार की तरह इस बार भी मनोज बाजपेई, फैमिली मैन की जान है और वह अपने उत्तरदायित्व को निभाना बखूबी जानते हैं और इसीलिए शायद हमेशा ख़रे भी उतरते हैं। उनका हास्य-विनोद और अनूठा अंदाज श्रीकांत के किरदार में जान डाल देता है और जेके(शारिब हाशमी) के साथ उनका तालमेल पिछली बार की तरह ही सीजन का स्तर बढ़ाते हैं। इनकी केमिस्ट्री बहुत स्वभाविक और वास्तविक लगती है। इस बार कहानी के तार श्रीलंका से भी जोड़े गए हैं, जिसके चलते तेलुगू सुपरस्टार समांथा अक्कीनेनी का अभिनय भी आपको देखने को मिलेगा जो कि काफी सटीक और सशक्त है और कहानी की मांग के अनुसार भी है। इस बार श्रीकांत के निजी जीवन पर काफी ध्यान केंद्रित किया गया है और उनका भरसक प्रयत्न भी दिखाया गया है अपनी निजी जिंदगी को सही सांचे में लाने का लेकिन हिंदुस्तानी पति कितना भी कुछ कर ले,कहीं ना कहीं तो चूक ही जाता है 🙂।


निर्देशन पिछली बार की तरह ही अच्छा है और प्रभावित भी करता है किंतु पटकथा में पिछली बार वाली सनसनी नहीं दिखती है। “अब क्या होगा… अब क्या होगा” वाली उत्सुकता का अभाव है जो कहीं ना कहीं खटकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि आप अंदाजा लगा सकते हैं कि आगे क्या और कैसे होने वाला है। शुरुआत में सीरीज की रफ्तार भी धीमी है जो अंत आते आते अपनी गति ले लेती है।

एक बात जो आजकल आने वाली ज्यादातर सीरीज में देखने योग्य मिल रहा है, वह है उपयुक्त पात्र-निर्धारण( casting) और कलाकारों का अभिनय। जिसने OTT पर आने वाली सभी सीरीज का स्तर काफी ऊपर उठा दिया है। यहां भी इस कार्य को बखूबी अंजाम दिया गया है और सभी कलाकारों ने अपना कार्य पूर्ण लगन से किया है।
कुल मिलाकर एक देखने योग्य The Family Man Season 2 आपके सामने प्रस्तुत किया गया है, तो बिना किसी देर के आप अपना Weekend इस के साथ गुजार सकते हैं। वैसे मुझे पता है आप ये ही कर रहे होंगे 🙂।

Trivia (something interesting)

– लॉकडाउन के चलते सिर्फ २ दिन की shooting के लिए 9 महीने का इंतजार बढ़ गया ।
– सुपर्ण वर्मा का भी निर्देशन शामिल।

कभी कभी…

कभी-कभी लगता है मन शांत नहीं है,
शायद होने की कोई बात ही नहीं है ।

कभी-कभी लगता है सबकुछ बुझा-बुझा सा है,
शायद कुछ अच्छा इसे सुझा ही नहीं है ।

कभी-कभी लगता है सब उजड़ सा गया है,
शायद मरम्मत का समय आया ही नहीं है ।

कभी-कभी लगता है सब रुका-रुका सा है,
शायद थकान अभी उतरी ही नहीं है ।

कभी-कभी लगता है सब पर चढ़ा कोई कर्ज सा है,
शायद किस्तें सही से चुकाई ही नहीं हैं ।

कभी-कभी लगता है जीने का कोई मतलब सा नहीं है,
शायद कभी सही से मतलब समझा ही नहीं है ।

कभी-कभी लगता है हर रिश्ता कितना ख़ास है,
शायद कभी इतने गौर से देखा ही नहीं है ।

कभी-कभी लगता है हर सांस कितनी कीमती है,
शायद कभी सही क़ीमत लगाई ही नहीं है ।

कभी-कभी लगता है सुकून कितना सस्ता है,
मिले तो चार दिवारी में वरना पूरी दुनियाँ में सुनवाई ही नहीं है ।

#pcscrawls

Ajeeb Daastaans : Thought-Provoking Cinema

निर्देशक – शशांक खेतान, राज मेहता, नीरज घेवान, कायोज ईरानी
अवधि- 2 घंटा 22 मिनट
प्रस्तुतकर्ता- Netflix
⭐⭐⭐⭐ 4/5
अजीब दास्तान्‌स एक एंथोलाजी यानी एक संकलन है। 4 कहानियों का संकलन, जिनमें समानता उनकेेे किरदारों की सोच हैै, जो बाहर से कुछ और तथा अंदर से कुछ अलग ही भावों को अपने अंदर समेटे हुए हैं। कहनेे का तात्पर्य है कि अंदर का शख्स बाहर वाले शख्स से मेल ही नहीं खाता हैै और वही इन सब कहानियों का असली चेहरा भी है।
इन कहानियों में आपको लाचारी, बेचारगी, बर्बरता, दृढ़ता, द्वेष, ईष्या, पूर्व-निर्माण, जहरीलापन, सभी तरह के भावों का समावेश मिलेगा।
अजीब दास्तान्‌स आपको परिपक्व सिनेमा की तरफ ले जाएगा और आपके मस्तिष्क में ऐसे सवाल छोड़कर जाएगा जिनका उत्तर ढूंढते हुए आपको भी अपने अंदर के छुपे हुए भावों की झलक देखने को मिल सकती है।

विचारोत्तेजक सिनेमा (Thought-provoking Cinema)।

अजीब दास्तान्‌स चार कहानियों का समूह है
मजनू :

जिसमेंं प्रथम शशांक खेतान द्वारा निर्देशित है और फातिमा सना शेख, जयदीप अहलावत और अरमान रहलान मुख्य कलाकारों की भूमिका में हैं। यह कहानी एक अधूरी शादी की दास्तान को बयां करती है। जहां पति पत्नी सिर्फ नाम के रिश्ते में हैै, समाज में अपने आधिपत्य को सुनिश्चित करने के लिए। फिर यहां “वो” का प्रवेश होता है और कहानी अलग मोड़ लेती है। मजनू में सब कुछ अच्छा है। किरदार काफी मजबूत हैं किंतु जो थोड़ा नहीं जमा है, वह है कहानी में नयेेपन की कमी। सब कुछ देखा और सुना हुआ सा प्रतीत होता है।

खिलौना :

दूसरी कहानी है खिलौना, जिसका निर्देशन राज मेहता ने किया है, यहां नुसरत भरुचा और अभिषेक बैनर्जी मुख्य कलाकारों की भूमिका में हैं। यह समाज के दो वर्गों को प्रस्तुत करती है, कोठीवाले और कटियावाले। कटियावालों का मानना है कि “कोठीवाले किसी केेे भी सगे नहीं होते” और यही इस कहानी का दर्द भी हैै। सभी किरदारों ने बहुुत ही सहज अभिनय किया है इस कहानी का अंत आपको हिला कर रख देगा। कहानी आपको पूरी तरह से बांध कर रखती है और बोर नहीं होने देती हैै। यहां जो थोड़ा खटकता है वह कहानी का अंत है, जो बहुत ही डरावना है किंतु कहानी इस अंत के साथ पूर्ण न्याय नहींं करती या कह सकतेेे हैं की इतनी घृणा का सबब पूर्ण रूप सेे निकल कर नहीं आता है।

गीली पुच्ची :

तीसरी और कई विषयों को सामने लाती हुई कहानी है गीली पुच्ची, जिसका निर्देशन नीरव घेवान द्वारा किया गया है और मुख्य किरदारों में कोंकणा सेन शर्माअदिति राव हैदरी हैं। यह कहानी दो विषयों को छूती है,- “वर्ण व्यवस्था” और “समलैंगिकता”। कहानी को सटीक ढंग से लिखा और प्रस्तुत किया गया है। किरदारों केेे बीच की कड़वाहट और खिंचापन साफ पता चलता है। दोनों अभिनेत्रियों नेे बहुत ही उम्दा और सहज अभिनय का प्रदर्शन कियाा है जो इस कहानी का सबसे मजबूत पक्ष है।

अनकही :

चौथी और आखिरी कहानी है निर्देशक कायोज़ ईरानी की, जो बहुुुुत ही गहरी और प्यारी है जिसके मुख्य कलाकार हैं शेफाली शाह, तोता राय चौधरी और मानव कौल। यह कहानी बोलती बहुत कम है लेकिन समझा सब कुछ जाती है और रिश्तो के उतार-चढ़ाव को भी बड़ी सहजता से समझा जाती है। सभी कहानियों में यह सबसे अधिक सशक्त और छाप छोड़ने वाली है। इसी के साथ शेफाली शाहमानव कौल इतने सटीक और निश्छल हैं कि आप अपनी नजर उन से हटा ही नहीं पाएंगे।

यदि आप चारों कहानियों की तुलना करते हैं तो प्रथम कहानी प्रभावित करने से थोड़ा सा चूक जाती है, बाकी सब अपने-अपने संदेश को आप तक पूरी तरह से पहुंचाती है। सभी किरदार अपने अपने चयन में पूर्ण रूप से न्याय संगत है और आपको मनोरंजन के साथ साथ सोचने पर विवश करते हैं, जो कि इस फिल्म का भी उद्देश्य है। एक बेहतरीन फिल्म काफी समय के बाद आपके समक्ष है और आप देखने से कृपया ना चूके।

फिल्म का मजबूत पक्ष, निर्देशन और किरदारों का चयन है।

तांडव :- एक सियासी खेल ।।।

निर्देशक – अली अब्बास ज़फ़र
कलाकार- सैफ अली खान, डिंपल कपाड़िया, मोहम्मद जीशान अयूब, सुनील ग्रोवर, कृतिका कामरा, कुमुद मिश्रा, तिग्मांशु धूलिया, सारा जेन डायस, गौहर खान
एपिसोड संख्या – 9 (35 to 40mis/-)
प्रस्तुतकर्ता- Amazon prime video

⭐⭐⭐ / 5

“सही और गलत के बीच में जो चीज आकर खड़ी हो जाती है उसे राजनीति कहते हैं”
उसी तरह अच्छी और बहुत अच्छी के बीच के फर्क को साफ तौर पर जो दर्शाती है उसे कहते हैं तांडव सीरीज..
तांडव सीरीज जब शुरू होती है तो आपको ऐसा लगेगा कि एक बहुत ही बेहतरीन और बारीकी सेेेे बुना हुआ राजनीतिक थ्रिलर आपके समक्ष प्रस्तुत किया जाा रहा है जो अपनी पकड़़ आपके मस्तिष्क पर धीरे धीरे मजबूत करता जाएगा, क्योंकि किरदारों का चयन काफी दिलचस्प है और हर एक किरदार एक दूसरे से जिस प्रकार से जुड़ा हुआ है वह आपकी जिज्ञासा को हवा देनेे के ढंग से ही रचा गया है।

तांडव में आपको वह सभी घटक उपस्थित मिलेंगे जो आपको किसी भी बेहतरीन रचनात्मक सृजन के लिए चाहिए होते हैं किंतु किसी भी उत्तम व्यंजन के लिए सभी मसालों को सही अनुपात में प्रयोग मेंं लाना ही एक अभिष्ट कला होती है और इसी कला का सही उपयोग करने से निर्देशक अली अब्बास ज़फ़र थोड़ा सा चूक गए हैैं।

तो यहां यह कहना कदापि गलत नहीं होगा कि
” नाम बड़े और दर्शन छोटे”
तांडव एक सियासी ड्रामा है। जिसमें यह दिखाया गया है कि अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए आपका कुछ भी कर जाना या किसी भी हद तक चले जाना नाजायज नहीं है। झूठ को किस तरह से झाड़ पोछ़ कर सफेद लबादे में जनता के सामने प्रस्तुत किया जा सकता है, वह तांडव आपको बताएगा। साम दाम दंड भेद की राजनीति और यही है असली राजनीति भी शायद।
कहानी की बात करें तो एक राजनीतिक पार्टी और परिवार की कहानी है। जो देवकी नंदन (तिग्मांशु धूलिया) से शुरू होती है। जिसकी पार्टी जनता लोक दल देश की सबसे मजबूत पार्टी है। और इस बार भी चुनाव में सफलता प्राप्त करने वाली है। जिसके चलते देवकी नंदन एक बार फिर प्रधानमंत्री बनने वाले हैं किंतु नतीजों से पूर्व ही उनकी मृत्यु हो जाती है। और फिर शुरू होता है राजनीतिक दांवपेच का खेल… कि अगला पी एम कौन बनेगा, पुत्र समर प्रताप (सैफ अली खान), पार्टी प्रमुख अनुराधा किशोर(डिंपल कपाड़िया) या फिर पार्टी के वरिष्ठ नेता गोपाल दास मुंशी(कुमुद मिश्रा)। इसी के साथ प्रवेश होता है छात्र राजनीति का जिसके चलते छात्र नेता शिव शेखर(मोहम्मद जीशान अयूब) और छात्र राजनीती का मुख्यधारा की राजनीति से जुड़ाव का। यह सब देखना काफी दिलचस्प भी है। सीरीज में छात्र राजनीति, मुख्यधारा की राजनीति, किसान आंदोलन, मीडिया की भूमिका मौजूदा राजनीति में, सब कुछ है और यह सब किस तरह से कार्य करता है उसकी भी झलक है किंतु सीरीज का climax उस की कमजोर कड़ी है। जिसके चलते अंत में एक अधूरेपन का स्वाद आता है।
अभिनय की बात करें तो सुनील ग्रोवर और सैफ अली खान के किरदारों ने पूर्ण अधिपत्य स्थापित किया हुआ है और वह आपको अपने अभिनय से पूर्ण रूप से विस्मित भी करेंगे और इसी कड़ी को आगे बढ़ाने का कार्य मोहम्मद जीशान अयूब ने भी किया है। किरदारों का चित्रण, लेखन और उनका चयन ही सीरीज की सबसे मजबूत कड़ी है और जिसके चलते आप सभी को यह सीरीज अवश्य देखनी चाहिए और अपनी प्रतिक्रिया को मुझ तक पहुंचाना भी चाहिए।

सफरनामा… Finalist (Mrs Delhi NCR 2020)

मैंने देखा है बंद परों का खुलना
मैंने देखा है कुम्हलाई आंखों का ख्वाब बुनना
मैंने देखा है सिर्फ अपने लिए ही लड़ना
मैंने देखा है खुद के वजूद को आगे रखना
मैंने देखा है अपने नाम को पहचान दिलाने का जज्बा पिरोना
इन बीते 4 दिनों में मैंने वह सब देखा और महसूस किया जो करने में शायद उम्र लग जाती है। अकेले में आप शायद अपने ही पंखों की उड़ान, अपने ही ख्वाबों की धार और अपने हौसलों को ही देख पाते हैं लेकिन जब आप एक ऐसी जगह होते हैं जहां सब के सपनों की दिशा एक ही है लेकिन फिर भी वह एक दूसरे से नहीं लड़ रहे वह सिर्फ और सिर्फ अपने आप को बेहतर और बेहतर और भी बेहतर करने के लिए लड़ रहे हैं।
जब बहुत लोगों की दिशा एक जैसी होती है तो वह शायद एक जैसे लगते हैं, ऐसा मैं सोचा करती थी लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है लोगों की शख्सियत अलग होते हुए भी ख्वाबों की दिशा एक है उनकी डगर एक है, उनकी मंजिल एक है फिर भी वे एक दूसरे से एकदम अलग है।
यहां मैं बात कर रही हूं अपने Mrs Delhi NCR 2020 के Finalist के अनुभव की, उस सफर की, उन चार दिनों की जो मैंने और बाकी प्रतियोगियों ने Glamour Gurgaon की Team के साथ बिताए। कुछ अनुभव जिंदगी आपको खुद ब खुद देती है और कुछ आप चुनते हैं। यह वही चुना गया अनुभव है। कभी-कभी आपके हुनर को आपके आसपास वाले लोग पूरी तरीके से महसूस नहीं कर पाते हैं। इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि आप हुनरमंद नहीं है, जरूरी यह है कि आप उसको पहचाने और वहां जाकर खड़े होने का जज्बा दिखाएं, जहां वह पहचाना जा सकता है।
Mrs Delhi NCR 2020 के ऑडिशन में मैंने इस जज्बे को प्रत्यक्ष रूप से देखा है उन लोगों को देखा है जो अपने हुनर को, अपनी शख्सियत को एक अलग पहचान देना चाहते हैं, जो अपने-अपने क्षेत्र में कुछ ना कुछ अर्थ पूर्ण कर रहे हैं, फिर भी कुछ और की कोशिश करना चाहते हैं। इसी को तो शायद जिंदगी कहते हैं – बिना रुके, बिना थके निरंतर कुछ ना कुछ करने की चाह में आगे बढ़ते जाना।
कभी-कभी आपको सिर्फ और सिर्फ सही समय पर सही जगह होने की जरूरत होती है और उसके बाद जो कुछ होता है वह अच्छा ही होता है, जिस प्रकार हीरे की कद्र जौहरी को होती है बाकियों के लिए तो वह भी कोयला होता है।
Glamour Gurgaon की Team के पास वो पारखी नज़र थी कि वो उस सजीवता को पहचान कर उसको वो दिशा दे जिसके लिए वो उस मंच पर आकर खड़े हुए हैं। इस pandemic (Corona) की उपस्थिति में इस तरह की प्रतियोगिता का आयोजन करना और लोगों का इस आयोजन में सम्मिलित होना एक उत्साही और क्रांतिकारी ज्जबे का उदाहरण प्रस्तुत करता है। कोई भी बाधा आपको आगे बढ़ने से नहीं रोक सकती बशर्ते आपकी दिशा सही है, जरूरी है तो सारे नियमों और निर्देशों का बखूबी पालन करना।
बरखा मैम (Barkha Nangia) और अभिषेक सर (Abhishek Nangia) ने ये पूर्ण रूप से सुनिश्चित कराया कि किसी भी प्रतिभागी को कोई असुविधा ना हो और नियमों का भी पूर्ण रूप से पालन किया जाए। इतना बड़ा उत्तरदायित्व लेना और उसको पूर्ण रूप से निभाना एक बहुत बड़ा जिम्मेदारी का कार्य होता है जो की काबिले तारीफ़ ढंग से Glamour Gurgaon की Team द्वारा सफलतापूर्वक अंजाम तक पहुंचाया गया।
कुछ लोग अपने सिर्फ अपने आपको कामयाबी की तरफ ले कर जाते है और कुछ वो रास्ता चुनते है जो दूसरों को कामयाबी की तरफ ले जाते हुए उनको भी कामयाब बनाए। इस बार कुछ लोगों के सपनों की उड़ान मैंने भी देखी और कुछ के सपनों को मुकम्मल होते हुए भी। इस पूरे आयोजन के दौरान जिस आशावादी सोच को मैंने सभी की आंखों में देखा वह बहुत ही प्रगतिशील थी। सभी लोग प्रतियोगी होते हुए भी किसी को नीचा दिखाना या छोटा दिखाने की कोशिश ना करते हुए अपने आप को श्रेष्ठ दिखाने की कोशिश में थे जोकि आज कल के प्रतिस्पर्धा पूर्ण वातावरण में कम ही देखने को मिलता है। इस श्रेष्ठता तक पहुंचने के लिए बहुत आत्मविश्वास और आत्म संयम की जरूरत होती है जो कि वहां आए सभी लोगों में था और यदि कभी किसी निराशा ने हम लोगों को घेरा तो बरखा मैम और बाकी सभी मेंटर्स ने सकारात्मकता बनाए रखने का पूर्ण प्रयास किया।

यहां मैं एक बात अवश्य कहना चाहूंगी कि लोगों का ग्लैमर और फैशन इंडस्ट्री के बारे में एक अलग तरह का दृष्टिकोण है जोकि नकारात्मक है, परंतु कुछ लोगों के नकारात्मक अनुभव को ही आधार बनाकर सभी को उसी कतार में शामिल करना उचित नहीं है। हर जगह हर तरह के लोग होते हैं, कभी कभी आप का चुनाव गलत होता है और कभी कुछ लोग गलत होते हैं जिनकी वजह से यह धारणा बन जाती है। तो कृपया अपने चुनाव को लेकर सजग रहें ताकि इस तरह की धारणाओं को बढ़ावा ना मिले।

हर व्यक्ति अपना आसमां खुद चुनता है और वही उसकी उड़ान को मुकम्मल दिशा मिल पाती है तो किसी भी अवसर को अपने हाथ से मत जाने दो क्योंकि वो अवसर आपको कुछ ना कुछ तो दे कर ही जाएगा। सफलता मिल गई तो ‘ सोने पर सुहागा ‘ नहीं तो अनुुुुभव तो अनमोल मिलेगा ही जो अपने आप में अतुलित है ।
अब बुढ़ापे में किस्से भी तो सुनने है, तो अपने किस्से तो आप ही बुनेंगे ना, तो फिर करो शुरूआत ।

अभिमान नहीं स्वाभिमान

जहां दिल खुश ना हो वहां से चले जाना

अभिमान नहीं स्वाभिमान होता है।”

हमनें सबको कहते हुए सुना है अभिमान और स्वाभिमान में बड़ा बारीक सा फर्क है और सब उस फर्क को अपनी-अपनी परिभाषा में परिभाषित करते हैं।

स्वाभिमान:- मेरा सम्मान हो यह मेरी अपेक्षा नहीं है लेकिन कोई मेरा अपमान ना करें यह मैं जरूर सुनिश्चित करता हूं/ करती हूं।

अभिमान:- मैं स्वयं सक्षम हूं और यह मुकाम मैंने हासिल कियाा है तो मेरा सम्मान होना चाहिए यह मेरा हक है।

अभिमान और स्वाभिमान की जंग बहुत पुरानी है और निरंतर चलती रही है लेकिन जब औरतों के स्वाभिमान की बात आती है तो यह और भी पेचीदा और उलझन भरी हो जाती है, यह उलझन अनादि काल से है। यहां महाभारत को ही उदाहरण के तौर पर ले लीजिए कितने ही लोगों को यह कहते और समझाते हुए सुना है कि महाभारत का युद्ध द्रोपदी के प्रतिशोध की वजह से हुआ है, वह एक अभिमानी स्त्री थी, वह चाहती तो यह युद्ध टाल सकता था । लेकिन अगर आपको सच में अभिमान और स्वाभिमान के बीच का अंतर ज्ञात है तो आप यही कहेंगे की यह उसके स्वाभिमान की लड़ाई थी, उसनेे अपने अपमान हो चुपचाप सहन नहीं किया और होना भी यही चाहिए। जब स्त्रियों के स्वाभिमान की बात आती है तो बहुत सारी भ्रांतियां, रीति-रिवाज, प्रथाएं आकर खड़ी हो जाती हैं जैसे कि समाज के इस खोखले ढांचे को चलाने की सारी जिम्मेदारी तो केवल स्त्रियों ने ही अपने कंधों पर उठा रखी है। अभी फिलहाल में एक फिल्म आई है थप्पड़। बहुत लोगों ने देखी भी होगी, सभी की अपनी-अपनी प्रतिक्रिया भी है उस फिल्म पर जैसे कि नाम से ही ज्ञात हो जाता है, मुद्दा एक थप्पड़ का है जो पति ने अपनी पत्नी को मारा है।

  • ” बस एक थप्पड़ ही तो है ! क्याा करूं ? हो गया ना…”
  • ” रिश्ते बनाने में इतनी effort नहीं लगती जितनी निभाने में लगती हैं।”
  • “थोड़ी बहुत मार-पीट तो expression of love ही है ना सर… “
  • “उसनेेे मुझे मारा ; पहली बार, नहीं मार सकता बस इतनी सी बात है।”
  • ” Just a slap पर मार नहीं सकता…”

ये सभी डायलॉग अपने आप में पूरी कहानी बयान करते हैं। हां, एक थप्पड़ ही तो है लेकिन मार नहीं सकता… यह पंक्ति अपने आप में सक्षम है यह बताने के लिए कि किसी भी रिश्ते में हाथ उठाना और मारना न्याय संगत नहीं है और यदि कोई व्यक्ति ऐसा करता है तो वह सामने वाले का अपमान कर रहा है और यह उसके स्वाभिमान पर चोट है।

भारतीय समाज पितृसत्ता(patriarchy)व पित्रतंत्र पर कार्य करता है, जिसके चलते विवाह के बाद स्त्री पति के घर का हिस्सा होती है और उसका उपनाम अपने नाम के साथ लगाती है, यह अनादि काल से होता आ रहा है, जिसके चलते हमारी जड़ों में समा चुका है और इसी के साथ यह धारणा भी समा चुकी है कि पति या पिता ही घर का मुखिया होता है उसी के हिसाब से चीजें चलनी चाहिए या चलती है।

थप्पड़ फिल्म उसी पित्रतंत्र के ऊपर एक प्रश्न चिन्ह लगाती है, यह प्रश्नचिन्ह लगती है रिश्तो में पुरुष श्रेष्ठता की हकदारी पर, यह प्रश्नन उठाती हैं उस लिंग भेदभाव(gender discrimination) केे ऊपर जो बचपन से पालन-पोषण(upbringing) में है और यह सिर्फ पुरुषों द्वारा नहीं है ये औरतों के द्वारा भी है क्योंकि शुरू से देेेखा ही वही है। जैसे “थोड़ा बर्दाश्त करना सीखना चाहिए औरतों को…” क्यों भाई क्यों सीखना चाहिए और अगर सीखना ही चाहिए तो फिर स्त्री-पुरुष दोनों को सीखना चाहिए, कोई नियम है तो दोनों के लिए समान क्यों नहीं।
मुद्दा यह ही है कि कितनी ही चीजें होती हैं रोजमर्रा कि जिंदगी में जहां पर लोग बिना सोचे समझे स्त्रियों पर टिप्पणियां कर देते हैं और उनको एहसास भी नहीं होता कि वह अपने आपको श्रेष्ठता का अधिकार दे रहे हैं।

“यार ! जब गाड़ी चलानी नहीं आती तो लेकर निकलती क्यों हैं…”

यह सबसे ज्यादा प्रयोग में आने वाली पंक्ति है क्योंकि दिमाग में कहीं ना कहीं यह बैठा हुआ है ‘औरतें अच्छी गाड़ी नहीं चलाती है।’

कहा तो यह जाता है, स्त्री और पुरुष बराबर हैं, एक गाड़ी के दो पहिए हैं, एक के बिना दूसरे का निर्वाह नहीं है। यदि यह सब बातें सही है तो पुरुषों को स्त्रियों पर हावी होने का अधिकार कहां से मिलता है और कौन देता है ?? यहां सबसे बड़ी विडंबना यह है कि यह हक या अधिकार स्त्रियां स्वयं ही जाने – अनजाने देती रहती हैं और उनको इसका एहसास तक नहीं होता यदि किसी को एहसास हो जाए तो यह कहा जाता है,

“यार वह तो जरा सी बात का बतंगड़ बना देती है, ऐसा तो घर संसार में लगा ही रहता है…”

नहीं ! ऐसे घर संसार नहीं चलते हैं और यदि कोई स्त्री अपने स्वाभिमान के लिए खड़ी होती है तो वह गलत या अभिमानी नहींं है।बस वह वो सब देख कर चुपचाप सहन नहीं करना चाहती, वह सबको दृढ़ता से बताना चाहती है कि यह गलत है और यदि सामने वाले को अपनी गलती का एहसास नहीं है तो यह एहसास दिलाना मेरी नैतिक जिम्मेदारी है क्योंकि वह उस श्रंखला को तोड़ना चाहती है जो पितृसत्ता केे चलते पुरुषों के अंदर जड़ कर चुकी है कि…

उनको हाथ उठाकर अपना आक्रोश दिखाने का, अपनी बात को बलपूर्वक मनवाने का, अपनी मनचाही मांगों को पूरा कराने का अधिकार है। ऐसा कोई अधिकार होता ही नहीं है और यदि आप इस तरह के किसी भी रिश्ते के अंदर है तो अपनी सोच को जागृत कीजिए क्योंकि आप कहीं ना कहीं उस श्रंखला को पानी दे रहे हैं, जो हमारे समाज को खोखला कर रही है। आप एक लड़की को, जो आपके घर में हैं, अपना स्वाभिमान दबाना सिखा रहे हैं। अनजाने में ही आप अपने घर के लड़के को यह बता रहे हैं कि… यह तो आम बात है लड़के या आदमी ऐसे ही व्यवहार करते हैं। यह आपके लिए और हमारे समाज के लिए अच्छा नहीं है। जहां आपकी और आपके रिश्तो की कदर ना हो वहां खड़े होने से अकेले खड़े रहना अच्छा है, यह अभिमान नहीं स्वाभिमान है…।

लम्हें :- ना उम्र की सीमा हो…

अब आप चाहें आदतों को दोष दो या भारतीय परंपराओं की दुहाई लेकिन जब प्यार की बात आती है तो लोगों ने हदें निर्धारित की हुई हैं। प्यार करो लेकिन उसके बारे में बात नहीं और जब उसमें उम्र का अंतर अधिक हो तो वह और भी अधिक चर्चा का विषय बन जाता है।

“प्यार जो उम्र की हदों को नजर-अंदाज करता हो”…

“प्यार जो हर परंपरा से आगे हो”…

इन वाक्यों को बोलतेे ही या पढ़तेे ही एक फिल्म जो जेहन में दस्तक देती है वह है लम्हें….
लम्हें, एक ऐसी कहानी है जहां दो लोगों का प्यार शर्तों से आजाद है। यहां बताया गया है कि प्यार का परंपरागत होना आवश्यक नहीं है।
लम्हें, वीरेन की कहानी है जिसे पल्लवी से प्यार है जोकि उससे उम्र में बड़ी है और वह वीरेन से प्यार भी नहीं करती है, जिस वजह से उसकी यह प्रेम कहानी पूरी नहीं हो पाती। फिर कहनी कुछ इस कदर मोड़ लेती है कि पल्लवी की बेटी पूजा को वीरेन से प्यार हो जाता है और कहानी थोड़ी उलझ जाती है और हमारी परंपरागत सोच को टक्कर देती है । वीरेन पूजा से उम्र में बड़ा है, पिता समान है तो ये प्यार सही नहीं है, संभव नहीं है। इसी तरह की अनगिनत बातें, जिन का सही मायनों में प्यार से लेना-देना भी नहीं है आ जाती हैं। लम्हें एक प्रगतिशील सोच को प्रदर्शित करती है परंतु उस समय इस फिल्म पर कई सवाल उठाए गए। उस समय के हिसाब से यह एक निषिद्ध विषय था।
क्या वाकई यह एक निषिद्ध विषय था ??
क्या यह असली जीवन में नहीं होता है ??
असली जीवन की बात करें तो दिलीप कुमार – सायरा बानो इस बात की पुष्टि करने का उत्तम उदाहरण है। उनका उम्र का अंतर २२ वर्षों का है, जब उनका विवाह हुआ तब दिलीप कुमार साहब ५५ वर्ष और सायरा बानो जी २२ वर्ष की थी और उनका यह विवाह सफल विवाहों में से एक है। इसी श्रंखलाा को आगेेे बढ़ाते हुए धर्मेंद्र जी-हेमा मालिनी जी जिनका उम्र का अंतर १३ वर्षों का है, इसी के साथ संजय दत्त-मान्यता दत्त जहां अंतर १९ वर्षों का है आते हैं और अभी एक नई जोड़ी जो दिमाग में आती है वह है मिलिंद सोमन-अंकिता की यहां यह अंतर २६ वर्षों का है।
यहां पर जगजीत सिंह जी के गाने कि चंंद पंक्तियां यहां काफी उपयुक्त हैं।
ना उम्र की सीमा हो
ना जन्म का हो बंधन
जब प्यार करे कोई
तो देखे केवल मन…..
तो देखे केवल मन… हमने हम-उम्र लोगों में प्यार होते हुए देखा है और उसको अपनाना भी हमारे लिए काफी सहज है लेकिन यहां सवाल यह है कि, क्या प्यार को उम्र का पता होता है। उसे यह एहसास भी होता है कि यह भी एक शर्त है, जो उसेे पूरी करनी पड़ेगी।
प्यार एक एहसास है, जो किसी को, कभी भी, किसी के लिए भी, कहीं भी महसूस हो सकता है। हमें इसको उम्र, जात-पात, रीति रिवाज और परंपराओं की बेड़ियों से दूर रखते हुए निष्काम और निष्छल ही रहने देना होगा जैसे कि किसी ने क्या सही कहा है…
पनाह मिल जाए रूह को जिसका हाथ छूकर,
उसी हथेली को घर बना लो…..

कुछ तो …

कुछ तो बदल रहा है, उम्र के साथ मुझ में
कुछ तो…

पहले जो कदम कहीं भी बेधड़क पड़ा करते थे उनको सोच समझ कर रखने लगी हूं मैं
अपने ही शब्दों के अर्थों में उलझने सी लगी हूं मैं…

अपने को, अपने को… समझदारी के एक लबादे में हमेशा ढकने की कोशिश में रहती हूं,
अपनी ही अलहड़ता से छुपने सी लगी हूं मैं…

मुझे नहीं पता कितना समझदार होने पर लोगों को समझदार की उपाधि दी जाती है या कितना ज्ञान प्राप्त कर वो ज्ञानी कहलाते हैं,
अपने आस-पास, अपने आस-पास..इन बुद्धिजीवियों की होड़ से विचलित सी होने लगी हूं मैं…

मुझे द्रौपदी का किरदार हमेशा से प्रभावित करता आया है।
उसके चेहरे की दृढ़ता हमेशा अपने अंदर महसूस कि है मैंने।किंतु अब इस बात को सबको बताने से भयभीत सी होने लगी हूं मैं…

बहुत संवेदनशील हूं मैं, बहुत संवेदनशील हूं मैं …और ये मेरा सब से बड़ा गुण है लेकिन इस गुण को भी गुण बताने से झिझकने सी लगी हूं मैं…

ये सब इस उम्र के साथ ही तो आया है।

तभी तो कुछ तो..कुछ तो बदल रहा है उम्र के साथ मुझ में…🙂